रावण अमर है : हर मंच पर, हर रूप में-एक व्यंग्य

हर साल दशहरा आता है। भीड़ उमड़ती है। पटाखों के शोर और ढोल-नगाड़ों के बीच रावण जलता है। लोग ताली बजाते हैं और घर लौटकर चैन की नींद सो जाते हैं कि बुराई का अंत हो गया। लेकिन यह केवल भ्रम है। असली खेल तो तब शुरू होता है जब राख ठंडी होने से पहले ही रावण किसी नए रूप में हमारे सामने खड़ा हो जाता है।

रावण अब लंका में नहीं, हमारे बीच जीता है। उसके दस सिर अब और आधुनिक हो गए हैं – राजनीति, बाबा संस्कृति, अपराध साम्राज्य, नौकरशाही, ठेकेदारी, दलाली, जातिवाद, धर्म के ठेकेदार, मीडिया और सोशल मीडिया। फर्क बस इतना है कि अब रावण जलता कम है, बिकता ज्यादा है।


राजनीति का रावण : वादों की लंका

आज का सबसे ताकतवर रावण राजनीति में बैठा है। वह चुनावी मंच पर खड़ा होकर जनता को सपनों की ऐसी लंका दिखाता है जिसमें हर कोई राजा होता है और गरीबी अगले दिन ही खत्म हो जाती है। उसके दस सिर से दस वादे झरते हैं – मुफ्त शिक्षा, मुफ्त इलाज, हर हाथ को काम और हर जेब में पैसा।

लेकिन चुनाव खत्म होते ही वही सिर नए बहाने बनाने लगते हैं – “अभी तो वक़्त चाहिए”, “पिछली सरकार की गलती है”, “हम पर तो साजिश रची जा रही है”। जनता सोचती है कि उसने रावण को जला दिया, पर असल में उसने उसे और ताकतवर बना दिया।


बाबा संस्कृति का रावण : मोक्ष का कारोबार

रावण का एक और रूप है – बाबा। गेरुए वस्त्र, बड़ी गद्दी और भक्तों की भीड़। हाथ में माला और आँखों में तिजोरी। ये रावण भक्तों को दिखाते हैं मोक्ष, और वसूलते हैं नोट।

जब इनका सच बाहर आता है तो मीडिया हफ्तों “विशेष कार्यक्रम” चलाता है। बहस होती है – यह संत है या शैतान? भक्त कहते हैं, “बाबा निर्दोष हैं, यह साजिश है।” पुलिस कहती है, “सभी सबूत पक्के हैं।” और जनता? जनता वही करती है जो उसे सबसे आसान लगता है – तमाशा देखती है। रावण यहाँ भी मरता नहीं, बल्कि उसकी “लीला” का री-रन चलता रहता है।


अपराध का रावण : गॉडफादर की सत्ता

कभी यह रावण राजनीति और अपराध के गठजोड़ के रूप में सामने आता है। यह बालू, शराब, कोयला, शिक्षा, अस्पताल हर जगह का माफिया बनकर खड़ा होता है। उसके दस सिर होते हैं – हर सिर पर एक थाना, एक ठेका, एक गॉडफादर और एक विधायक का आशीर्वाद।

पुलिस जब किसी रावण को “एनकाउंटर” में मार गिराती है तो जनता खुश होती है। लेकिन अगले दिन एक नया चेहरा उसी जगह से उभर आता है। जनता को पता भी नहीं चलता कि मरने वाला रावण दरअसल एक “सब-कॉन्ट्रैक्टर” था, असली मालिक तो अब भी जिंदा है।


मीडिया का रावण : प्राइम टाइम की लंका

रावण का सबसे मनोरंजक रूप मीडिया में दिखता है। टीवी स्क्रीन पर उसके सिर बंटे-बंटे नज़र आते हैं – कोई सिर चिल्लाता है, कोई गाली देता है, कोई डेटा की जुगलबंदी करता है, और कोई सिर देशभक्ति का झंडा उठाए खड़ा हो जाता है।

दर्शक घर बैठकर इस नौटंकी का मज़ा लेते हैं। चैनल वालों की जेब में विज्ञापन की बरसात होती है। और रावण? वह और मोटा होता जाता है। अब तो हालत यह है कि रावण के लिए जलना भी “ब्रांडिंग” बन गया है। वह जितनी बार जलता है, उतनी बार उसकी टीआरपी बढ़ती है।


जनता : हत्यारा भी, पुजारी भी

सबसे बड़ा व्यंग्य तो यही है कि जनता खुद को रावण का हत्यारा भी मानती है और पुजारी भी। चुनाव में वोट देकर वही रावण को गद्दी पर बैठाती है। बाबा के चरणों में लोटकर वही रावण को देवता बना देती है। अपराधियों से सुरक्षा की उम्मीद रखकर वही रावण को मजबूत करती है।

जनता सोचती है कि उसने रावण को जला दिया, लेकिन असल में उसने उसकी बैटरी चार्ज कर दी। यही कारण है कि रावण मरकर भी अमर रहता है।


रावण का ट्रायल : टीआरपी की अदालत

अब रावण का अंत मैदान में नहीं, बल्कि टीवी स्टूडियो की अदालत में होता है। कोई कहता है रावण निर्दोष है, कोई कहता है विदेशी साजिश है, कोई कहता है यह सब विपक्ष की चाल है।

घंटों तक बहस चलती है। दर्शक popcorn खाते हुए आनंद लेते हैं। चैनल की टीआरपी आसमान छूती है। और रावण? वह हँसता है – “जला तो मैं गया, पर मुनाफा किसी और का नहीं, मेरा ही बढ़ा।”


नया रूप, नया जन्म

हर चुनाव, हर घोटाले, हर घपले के साथ नया रावण जन्म लेता है। फर्क सिर्फ इतना होता है कि उसका रूप बदल जाता है – कभी नेता, कभी बाबा, कभी माफिया, कभी एंकर। जनता को धोखा देने का उसका तरीका बदलता है, लेकिन मकसद वही रहता है – सत्ता और संपत्ति पर कब्जा।


निष्कर्ष : रावण हमेशा जीवित रहेगा

सच यही है कि रावण कभी नहीं मरता। क्योंकि उसे हम सबने अमर बना दिया है। राजनीति में वोट से, बाबा संस्कृति में आस्था से, अपराधियों के दरबार में चुप्पी से और मीडिया की स्क्रीन पर तालियों से। हर दशहरा हमें यह याद दिलाता है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। पर बाकी के 364 दिन हमें यह भी याद दिलाते हैं कि बुराई कितनी चतुर है – वह हर बार नया चेहरा पहनकर लौट आती है।

रावण अमर है और उसकी सबसे बड़ी ताकत यही है कि हम सब उसे मारने की रस्म निभाते भी हैं और जीने का लाइसेंस भी देते हैं।

नोंटः यह लेख केवल एक व्यंग्यात्मक रचना है, किसी व्यक्ति, संस्था या समुदाय के चरित्र को लक्षित करने का उद्देश्य इसमें नहीं है। इसे पढ़कर अपने समाज, राजनीति और मीडिया पर सोच-विचार करना ही इसका मूल संदेश है। इस व्यंग्य के माध्यम से हमारी सोच को चुनौती देने का प्रयास किया गया है, न कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का। इस लेख को पढ़ते समय कृपया इसे हास्य और कटाक्ष की दृष्टि से ही समझें, गंभीर मन लेकर मंथन करें और सोचना जारी रखें। फिर भी यदि किसी की भावनाओं को अनजाने में ठेस पहुँची हो, तो इसके लिए लेखक क्षमा प्रार्थी है।

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