” GST 2.0 सुधार : क्षणिक या दूरगामी ?”

दीपेंद्र श्रीवास्तव
राजनीतिक विश्लेषण

विरोध से आराधना तक: राजनीति की करवटें

वर्ष 2011 में UPA सरकार ने GST विधेयक संसद में पेश किया, लेकिन BJP ने इसका कड़ा विरोध किया। तत्समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी इसके दूरगामी प्रभावों की आशंका जताते हुए इसका प्रबल विरोध किया। विरोध के कारण यूपीए सरकार को यह विधेयक अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा। पर जब 2014 में केंद्र की सत्ता परिवर्तन हुई, वही नीति अचानक “एक राष्ट्र, एक कर” की आर्थिक क्रांति घोषित कर दी गई। विरोध से समर्थन तक का यह परिवर्तन भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा कौशल है — विचार नहीं, सत्ता के अनुसार नीति तय होती है।

2017 में जब GST पूरे जोश के साथ लागू हुआ, तो इसे “21वीं सदी की सबसे बड़ी कर क्रांति” बताया गया। इसका उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था को एकीकृत करना और व्यापार को आसान बनाना बताया गया। इसी संरचना के साथ 1 जुलाई 2017 को पूरे जोश के साथ देश में जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) लागू हुआ।लेकिन यह क्रांति छोटे व्यापारियों, खुदरा विक्रेताओं और मध्यम वर्ग के लिए उलझनों का जाल बन गई। रिटर्न फाइलिंग, ई-इनवॉइस, और ऑडिट के नए नियमों ने व्यावसायिक स्वतंत्रता को जटिल बना दिया।

विपक्ष ने समय-समय पर इसका विरोध किया। जीएसटी लागू होने के बाद बाजार में उतार-चढ़ाव बना रहा, और कोविड काल में इसके कलेक्शन पर असर पड़ा। विपक्ष ने इसे महंगाई का कारण बताया, जबकि मोदी सरकार ने इसे अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने वाला बताया। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे ‘गब्बर सिंह टैक्स’ करार दिया और कहा कि यह गरीबों को लूटने तथा बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाने वाला टैक्स है। स्लैब दरों में बदलाव की मांग भी उठती रही। कहा गया कि यह सुधार आम जनता को राहत देगा, पर सवाल यह उठता है कि अगर पुराना ढांचा इतना सशक्त था, तो फिर सुधार की ज़रूरत क्यों पड़ी? और अगर यह नया ढांचा जनता के लिए फायदेमंद है, तो जनता को राहत देने में आठ साल क्यों लगे?

2024 के लोकसभा चुनाव में महंगाई एक प्रमुख मुद्दा रहा। चुनाव परिणाम मोदी सरकार के लिए चौंकाने वाले रहे I सरकार तो NDA की बनी, पर भाजपा के लिए नतीजे निराशाजनक साबित हुए। विपक्ष ने इसे सरकार की गलत नीतियों का परिणाम बताया। इसी बीच, दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान 8 वें वेतन आयोग के गठन की घोषणा की गई। माहौल बना कि सरकार बहुत जल्द इसे लागू करेगी, लेकिन अभी तक इसका धरातलीय असर नहीं दिखा।

15 अगस्त 2025 को माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले से जीएसटी सुधारों की घोषणा की। सरकार समर्थक इसे ‘नए आर्थिक क्रांति’ के रूप में देखने लगे, पर आलोचनाएँ भी शुरू हो गईं, इसे आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव को जोड़ कर देखें जाने लगा क्योंकि जीएसटी काउंसिल की बैठक से पहले की गई घोषणा पर सवाल उठाए जाना स्वाभाविक था। काउंसिल की 55 वीं बैठक तक जीएसटी में आम उपभोक्ताओं को राहत देने के प्रयास नहीं दिखे थे। लंबे समय से मांग उठती रही कि दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर जीएसटी समाप्त किया जाए, साथ ही पेट्रोल और डीज़ल को भी जीएसटी के दायरे में लाया जाए, पर इन मांगों को अब तक नज़रअंदाज़ किया गया।

लाल किले की घोषणा के बाद 3 सितम्बर 2025 को जीएसटी काउंसिल की 56 वीं बैठक में ‘जीएसटी 2.0’ सुधारों की घोषणा की गई, जो 22 सितम्बर 2025 से प्रभावी हुआ। इन सुधारों का उद्देश्य कर संरचना को सरल बनाना, आवश्यक वस्तुओं पर कर कम करना तथा लक्ज़री और ‘सिन गुड्स’ पर अधिक कर लगाना बताया गया। पुरानी संरचना में 5 स्लैब थे, जबकि नई संरचना में मुख्यतः 3 स्लैब रखे गएरू 0%, 5%, 18 %और 40%। 12% और 28% स्लैब को हटाकर इन्हें समाहित कर दिया गया। कुछ विशेष दरें जैसे 3% (सोना) और 0.25 %(हीरे) यथावत रखी गईं। शराब (मदिरा) के लिए मानव उपभोग वाली शराब पर जीएसटी लागू नहीं होता यह जीएसटी का एक प्रमुख अपवाद लगता है। 2025 में जीएसटी 2.0 की शुरुआत में भी कोई बदलाव नहीं किए गए हैं।
मोदी सरकार के इस सुधार निर्णय के बाद सरकार के सभी नुमाइंदे बड़े जोर-शोर से मैदान में उतरे, मानो अब तक जो कर वसूला जा रहा था वह किसी और सरकार का लगाया हुआ कर रहा हो। यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठा कि यदि अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए पूर्व कर ढांचा आवश्यक था, तो आम जनता को राहत देने में सरकार को आठ साल क्यों लगे?

सवाल यह भी है कि मार्च 2014 में देश का कुल कर्ज़ 55.5 लाख करोड़ रुपये था, जो मार्च 2025 तक बढ़कर 185.1 लाख करोड़ रुपये हो लगभग हो गया। ऐसे में कर सुधारों के बावजूद कर्ज़ का बोझ क्यों बढ़ा?

सरकारी नुमाइंदों ने उत्सव के माहौल में ऐसे प्रचार किए कि “3000 रुपये का सामान अब 1500-1600 रुपये में मिलेगा, यानी 50 %की छूट!”। ऐसे बयान हास्यास्पद लगे और जनता भी भ्रमित होकर बाजार में छूट खोजने लगी। लेकिन बाजार में दूध, सब्ज़ी, चावल, दाल, आटा जैसी रोजमर्रा की वस्तुओं पर उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं दिखा। दुकानदारों का कहना था कि उनके पास पुराना स्टॉक है, जो पुराने दामों पर ही खरीदा गया था, इसलिए वे नया रेट नहीं लगा सकते।

विपक्ष का यह भी आरोप में सामने आया कि सरकार बड़ी कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए यह सुधार योजना त्योहारों से पहले लागू करने की घोषणा की गई, ताकि वे अपने स्टॉक में मूल्य बढ़ा सकें और जनता को वही पुरानी दरों पर सामान बेचा जा सके। मोदी सरकार ने दशहरा और दीपावली जैसे अवसरों पर छूट उत्सव मनाने का ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला। निश्चित रूप से दोपहिया, चारपहिया वाहनों और कुछ बड़े उपभोक्ता वस्तुओं पर लोगों को क्षणिक लाभ मिला, लेकिन यह भी पुराने स्टॉक तक ही सीमित रहने की आंशका बनी है।

कर संरचना सरल और कर बोझ हल्का हुआ है, यह सच है, पर तस्वीर अब भी मिश्रित है। कच्चे माल पर जीएसटी बढ़ने से तैयार माल पर कर घटाने का असर फीका पड़ सकता है। उदाहरण के तौर पर, कॉपियों और किताबों पर जीएसटी 0 %कर दिया गया, पर जिस कागज़ से ये बनती हैं उस पर जीएसटी 12% से बढ़ाकर 18 %कर दी गई। इसी तरह रेडीमेड कपड़ों पर छूट दी गई, पर जिस धागे से कपड़ा बनता है उस पर 18 %जीएसटी लगाया गया। ऐसे कई कच्चे सामान हैं जिन पर कर बढ़ने से अंतिम उत्पाद सस्ता नहीं हो पाएगा।

असली तस्वीर त्योहारों के बाद तब सामने आएगी, जब कंपनियाँ अपना पुराना स्टॉक निकालने के बाद नया स्टॉक लेकर बाजार में उतरेंगी। तभी मालूम होगा कि यह छूट वाकई लाभकारी है या केवल त्योहारों तक सीमित ‘क्षणिक उत्सव’।

असल लाभ तब होगा जब ये सुधार सीधे आम जनता की जेब पर असर डालें। मोदी सरकार को अपने ‘जीएसटी 2.0 सुधार योजना’ की दीर्घकालिक सफलता के लिए कंपनियों पर सख़्त निगरानी रखनी होगी, वरना यह योजना क्षणिक राहत देकर ही समाप्त हो जाएगी।

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