✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
कर्नाटक राजनीति में इन दिनों जो सियासी तूफान चल रहा है, वह सिर्फ एक नेतृत्व संघर्ष नहीं — बल्कि कांग्रेस के गुटबाजी‑ड्रामा का पूरा स्टेज बन गया है। प्रदेश में अब तक दो धड़ों की लड़ाई मानी जा रही थी — सिद्धारमैया गुट और डी. के. शिवकुमार गुट — लेकिन ताजा खबरों में तीसरा खिलाड़ी भी दावेदारी के लिए दिल्ली दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है। यह केवल शक्ति की लड़ाई नहीं है, बल्कि कांग्रेस के अस्तित्व और उसकी नैतिक वैधता के लिए एक गंभीर परीक्षा बनकर उभरी है।
जातीय समीकरण और वोट बैंक का खेल
कर्नाटक की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरण और सामाजिक ताकतों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यहाँ मुख्य रूप से लिंगायत, वोक्कालिगा (Vokkaliga) और अन्य पिछड़े तथा अल्पसंख्यक वर्ग जैसे स्वर्ण और बैकवर्ड कम्युनिटी का बड़ा प्रभाव रहा है।
कांग्रेस के तीन प्रमुख नेता — सिद्धारमैया, डी.के. शिवकुमार और के.एन. राजन्ना — सीधे इन जातीय समूहों पर अपनी पकड़ के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
- सिद्धारमैया: मुख्य रूप से वोक्कालिगा और पिछड़े वर्ग में मजबूत।
- डी.के. शिवकुमार: लिंगायत समुदाय और शहरी वोट बैंक में प्रभावशाली।
- के.एन. राजन्ना: स्वर्ण और कुछ बैकवर्ड समुदायों में प्रभावशाली।
वहीं बीजेपी का जातीय आधार कर्नाटक में संगठित और मजबूत माना जाता है। लिंगायत समुदाय पर उनकी पकड़ कांग्रेस से अक्सर बेहतर रही है, और अब वे धीरे-धीरे अन्य समुदायों में भी अपनी पहुँच बढ़ा रहे हैं। यदि कांग्रेस जातीय संतुलन सही से नहीं संभालती, तो बीजेपी मौन रहते हुए भी सत्ता में सेंध लगा सकती है।
गुटबाजी और हाई‑कमान की चुनौती
कांग्रेस हाई‑कमान के सामने “नो इजी वे आउट” है। किसी गुट को ज्यादा समर्थन देने से दूसरे गुट में विद्रोह पैदा हो सकता है, जिससे पार्टी की छवि पर नकारात्मक असर पड़ेगा। बीजेपी भी इस गड़बड़ी को ख़ाली आंखों से नहीं देख रही। विपक्षी नेता कहते हैं कि कांग्रेस की गुटबाज़ी प्रशासन से ध्यान हटा रही है, और राज्य में कानून-व्यवस्था और विकास दोनों में गिरावट का लाभ भाजपा ले सकती है। यह पूरा मंथन कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए सिरदर्द बन गया है। उन्हें न सिर्फ यह तय करना है कि किसे मुख्यमंत्री बनाना है, बल्कि यह भी सोचना है कि इस फैसले से उनकी प्रतिष्ठा और पार्टी की अखंडता कैसे प्रभावित होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि हाई-कमान के सामने “नो इजी वे आउट” है। कहीं ऐसा न हो कि किसी एक गुट को ज्यादा समर्थन देने के चलते दूसरे गुट में विद्रोह पैदा हो जाए, और इससे अंततः कांग्रेस की छवि लोकसभा चुनावों या भविष्य की राज्य चुनावों में भारी नकारात्मक असर में बदले।
भाजपा की निगाह : शांत पर सख्त तैयारी
बीजेपी भी इस गड़बड़ी को ख़ाली आंखों से नहीं देख रही। विपक्षी नेताओं ने खुलकर दावा किया है कि कांग्रेस की गुटबाज़ी प्रशासन से ध्यान हटा रही है, और राज्य में कानून-व्यवस्था व विकास दोनों में गिरावट का लाभ भाजपा ले सकती है। बीजेपी के विमर्श में यह साफ है कि वे सत्ता की इस लड़खड़ाहट का इंतज़ार कर रही है — न तो वे अभी हाई-प्रोफाइल विद्रोह की बात कर रही हैं, न खुली धमकियाँ दे रही हैं। उनकी रणनीति नकेल कसने की है — शांति से किनारे खड़ी होकर, भीतर की लड़खड़ाहट को सत्ता परिवर्तन के अवसर में बदलने की तैयारी। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी “चाणक्य नीति” अपना सकती है: विधायकों को खरीद-फरोख्त, रिसॉर्ट रणनीति जैसी संभावना बेकार नहीं है, खासकर अगर कांग्रेस की हाई-कमान टकराव गहरा जाए।
क्या कांग्रेस अपनी ही फ़ांस में फंस सकती है?
यह सवाल अब महज कयास नहीं रह गया — यह वास्तविक खतरे बन चुका है। अगर हाई-कमान ने देर की, या फैसला गलत लिया, तो कई संभावनाएं हैं:
- विधायकों की खरीद-फरोख्त: जैसे कई राज्यीय राजनीतिक संकटों में देखी गई, कांग्रेस अपनी स्थिति बचाने के लिए विधायकों को मनाने या खरीदने का सहारा ले सकती है।
- रिसॉर्ट ड्रामा: विधायक को एक “निरपेक्ष स्थान” पर रखकर उन्हें हाई-कमान के निर्देशों के तहत नियंत्रण में रखा जाए — यह रणनीति भी राजनीतिक इतिहास में कई बार काम कर चुकी है।
- फार्मूला खोजना: कांग्रेस हाई-कमान किसी तर्कसंगत समझौते की तलाश में हो सकती है — उदाहरण के लिए, रोटेशन, शेयरिंग ऑफिस, या नए उप-मुख्यमंत्री पदों का प्रस्ताव।
- सार्वजनिक बैकफ़ुट लेना: हाई-कमान जनता और मीडिया के सामने यह तर्क दे सकती है कि गुटबाज़ी के बावजूद, कांग्रेस अभी भी विकास पर केंद्रित है और सत्ता बनाए रखेगी क्योंकि यह भाजपा के लिए सबसे बड़े खतरे में से एक है।
लेकिन क्या यह बचाव कारगर होगा?
यहां पर चुनौती सिर्फ गुटबाज़ी को नियंत्रित करने की नहीं है, बल्कि कांग्रेस को यह दिखाना होगा कि यह सत्ता संघर्ष जनहित के लिए नहीं, बल्कि पार्टी हित के लिए हो रहा है — और जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि भीतर की लड़ाई का असर उनकी ज़िंदगी पर नहीं होगा। अगर हाई-कमान समय रहते हस्तक्षेप करती है, संतुलन बनाए रखती है और एक साफ-स्वच्छ फैसला लेती है, तो कांग्रेस यह संकट पार कर सकती है। लेकिन अगर देर हुई, तो भाजपा को मौका मिल सकता है — न तो कोई बड़ा विद्रोह दिखे, न हाई-प्रोफाइल दरारें, पर धीरे-धीरे सत्ता में सेंध मारने की रणनीति काम कर सकती है।
संकटमोचन राहुल या दांव-पेंच भाजपा?
कर्नाटक की यह सत्ता खींचतान कांग्रेस के लिए एक दोधारी तलवार है। यदि राहुल गांधी और हाई कमान समझदारी से फैसला लें, तो शिवकुमार और सिद्धारमैया दोनों गुटों के बीच संतुलन बना सकते हैं — और पार्टी को 2028 की चुनौतियों के लिए मजबूत कर सकते हैं। लेकिन अगर उन्होंने देरी की, या पक्षपात किया, तो भाजपा जो चुपचाप इंतज़ार कर रही है, सत्ता में आ सकती है — बिना बहुत शोर किए, लेकिन पूरी तैयारी के साथ। मामला अब सिर्फ एक राजनीतिक गेम नहीं है — यह कांग्रेस के भविष्य, उसकी अखंडता और कर्नाटक की राजनीति में उसकी पकड़ की सच्ची परीक्षा है।
