✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
शिक्षा : सरकार का दायित्व, लेकिन व्यवहार में “बोझ” बना दिया गया
किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था सरकार की नैतिक जिम्मेदारी होती है। संविधान कहता है कि हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण, समान और किफायती शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन मौजूदा हालात बताते हैं कि सरकार ने इस जिम्मेदारी को या तो भूल चुकी है या फिर जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है। सरकार सिर्फ कागज़ों में सुधार, फाइलों में क्रांति, और मंचों से बड़े-बड़े दावे कर रही है। जमीन पर शिक्षा की हालत इतनी बदतर है कि लगता है जैसे सरकार का असली मकसद ही सरकारी स्कूलों को जानबूझकर खत्म करना है, ताकि निजी स्कूलों का बाजार चौड़ा हो सके। सरकारी स्कूलों में गरीबों के बच्चे पढ़ें या न पढ़ें — सरकार को उसकी भूख नहीं, सिर्फ “डेटा की भूख” है। यह विफलता नहीं, बल्कि नीति-निर्माताओं की जाने-अनजाने बनाई गई योजना लगती है — एक ऐसी योजना, जिसमें गरीबों के बच्चों के लिए शिक्षा जैसे अधिकार को धीरे-धीरे बाजार के हवाले किया जा रहा है।
आज शिक्षा नहीं, राजनीति प्राथमिकता है। बच्चों का भविष्य नहीं, सत्ता की कुर्सी ज्यादा जरूरी है। यही कारण है कि शिक्षकों से पढ़ाने का काम कम और सरकारी योजनाओं, चुनावी जुगाड़ और फॉर्म भरवाने का काम ज्यादा लिया जाता है। शिक्षा मंत्रालय की नीतियां ऐसी हैं मानो सरकार कह रही हो — “सरकारी स्कूल चलें तो ठीक, न चलें तो और भी ठीक।” यह गिरावट किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से नहीं, सीधे-सीधे सरकार की नीतिगत विफलताओं, सोच की संकीर्णता और शिक्षा के प्रति अपराध जैसी उदासीनता का नतीजा है।
कागज़ी घोड़े, चमकदार रिपोर्टें — हकीकत में सरकारी शिक्षा बेहाल
‘फ्री किताबें’, ‘मिड-डे मील’, ‘छात्रवृत्ति’, ‘स्मार्ट क्लास’ — कागजों में योजनाओं का झोलापट्टी बड़ा है। लेकिन वास्तविकता?
गांव में स्कूल में ब्लैकबोर्ड टूटा, शहर में शिक्षक आधे, कस्बों में बच्चे गायब। सरकार जनता को “कागजी घोड़े दौड़ा-दौड़ा कर” विश्वास दिलाती है कि सरकारी शिक्षा सुधर रही है, जबकि वास्तविक सुधार के नाम पर बस दिखावे की बातें हैं। दरअसल, सरकारी उदासीनता ने सरकारी स्कूलों को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहाँ से लौटकर वे फिर वही वाली प्रतिष्ठा नहीं पा सकते क्योंकि जनविश्वास टूट चुका है।
आँकड़ों की हकीकत: सरकारी स्कूलों का लगातार पतन
नीति-निर्माताओं या घोषणापत्रों में जितना दिखता है — वास्तविकता उससे करोड़ों कदम दूर है।
- हाल ही में प्रकाशित UDISE+ (2024–25) की रिपोर्ट बताती है कि देश भर में सरकारी स्कूलों की संख्या घटकर 1,013,322 रह गई है, जबकि निजी (अनुदान न देने वाले) स्कूलों की संख्या बढ़कर 339,583 हो चुकी है।
- 2014–15 से 2023–24 तक के दशक में, सरकारी स्कूलों में 8% की गिरावट हुई है, मतलब 89,441 सरकारी स्कूल बंद या मर्ज हो चुके हैं। वहीं, निजी स्कूलों की संख्या 14.9% बढ़ी है।
- इस गिरावट में प्रमुख योगदान वाले राज्य हैं — उत्तर प्रदेश (UP) और मध्य प्रदेश (MP)।
- 2023–24 के बाद 2024–25 में भी सरकारी स्कूलों में नामांकन घटा है और निजी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है — जो संकेत है कि निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार, जानबूझकर या नासमझी में, अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे हट रही है।
यह आँकड़े सिर्फ संख्या नहीं बताते — यह व्यथा हैं उन बच्चों, उन परिवारों और पूरे समाज की, जिन्हें शिक्षा के नाम पर धोखा दिया जा रहा है।
सरकारी स्कूल बंद, निजी स्कूलों की बाढ़ — क्या यह संयोग है?
पिछले वर्षों में हजारों सरकारी स्कूल बंद हुए या मर्ज किए गए। इसी दौरान, निजी (महंगे) स्कूलों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। गली-मोहल्लों में “कॉन्वेंट जैसी पढ़ाई” के नाम पर छोटे से कमरे में स्कूल खुल जाते हैं, और अभिभावक मजबूरी में फीस भरते हैं। क्योंकि सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता पर भरोसा ही नहीं रहा। यह सिर्फ शिक्षा नहीं — यह “असमानता का उत्पादन तंत्र” है। जहाँ गरीबी गुणवत्ता वाली शिक्षा से काट दी जा रही है।
शिक्षक स्कूल में कम, सरकारी ड्यूटी में ज्यादा — फिर पढ़ाई होगी कैसे?
सबसे बड़ा कटाक्ष यही है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक पढ़ाने के लिए नियुक्त होते हैं, लेकिन पढ़ाते सबसे कम हैं।
- चुनाव आयोग का सर्वे,
- वोटर लिस्ट अपडेट,
- जनगणना,
- आंगनबाड़ी फॉर्म,
- दवा वितरण,
- सर्वेक्षण,
- राशन-कार्ड की जांच,
- चुनाव प्रशिक्षण,
- BLO का काम,
- बीमा सर्वे,
- सरकारी योजनाओं का प्रमाणीकरण…
- लंबी सूची है।
दिसंबर में ऐसी स्थिति बनी कि अर्धवार्षिक परीक्षा शुरू होने से एक महीने पहले से ही शिक्षक चुनाव आयोग के “SIR” में लगे हुए थे।
अब सवाल यह है —
जिसे पढ़ाना था, उसे अगर सरकारी कामों में उलझा दिया जाए तो , क्या सरकारी स्कूल से शिक्षा की उम्मीद बचती है?
वे सरकारी स्कूल जहाँ से IAS निकलते थे — आज वहाँ क्लर्क तक नहीं बन पा रहा
कभी सरकारी प्राइमरी और इंटर कॉलेजों में पढ़कर लोग IAS, PCS, डॉक्टर, प्रोफेसर और बड़े-बड़े पदों पर जाते थे। तब शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी थी, साधन कम थे लेकिन नीयत साफ थी। शिक्षक कम वेतन में भी ईमानदारी से पढ़ाते थे। आज स्थिति उलटी है —लाखों की सेलरी लेकर भी शिक्षण का स्तर गिर गया है। सरकारी स्कूलों का स्तर ऐसा गिरा दिया गया है कि वहां से पढ़ा बच्चा क्लर्क की नौकरी का भी उम्मीदवार नहीं लग रहा। जबकि दूसरी तरफ निजी स्कूलों में कम वेतन वाले शिक्षक भी अपने अनुशासन, प्रबंधन और लक्ष्य के कारण बेहतर शिक्षा दे रहे हैं। यह विडंबना नहीं — यह भ्रष्ट नीतियों का दुष्परिणाम है।
सरकारी स्कूलों का अस्तित्व अब योजनाओं पर टिका — शिक्षा पर नहीं
सच यह है कि आज सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन मुख्यतः इन कारणों से है:
- मिड-डे मील
- मिड-डे मिल्क
- छात्रवृत्ति
- मुफ्त किताबें
- मुफ्त यूनिफॉर्म
अगर सरकार ये सुविधाएँ बंद कर दे — तो आने वाले वर्षों में सरकारी स्कूलों का ताला लगना निश्चित है। क्योंकि बच्चे शिक्षा के लिए नहीं, सुविधाओं के लिए आ रहे हैं और इसका जिम्मेदार कौन? सरकार की नीतियाँ।
शिक्षा नहीं, आंकड़े प्राथमिकता — सरकार के लिए बच्चों का भविष्य नहीं, फाइल महत्वपूर्ण
सरकार हर मंच से कहती है —“हमने इतने स्कूल खोले, इतने रुपये दिए, इतने बच्चे पढ़ रहे हैं।” लेकिन कोई यह नहीं पूछता —क्या पढ़ रहे हैं? कैसा पढ़ रहे हैं? किससे पढ़ रहे हैं? नीति-निर्माताओं की सोच साफ है — फाइल मोटी हो, आंकड़े चमकें,
शिक्षा चाहे जमीन पर बिखरी पड़ी हो। इस देश की सरकारें शिक्षा को वोट का हथियार तो बनाती हैं, पर बच्चों का अधिकार कभी नहीं मानतीं।
सरकार जवाब दे — आखिर बच्चों की शिक्षा आपकी प्राथमिकता में सबसे नीचे क्यों है?
सरकारों को जवाब देना चाहिए —
- सरकारी स्कूलों को बंद करने की नीति क्यों लागू की जा रही है?
- शिक्षकों को पढ़ाने की जगह सरकारी ड्यूटी में क्यों झोंका जाता है?
- निजी स्कूलों की अनियंत्रित वृद्धि को क्यों रोका नहीं जा रहा?
- सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए कोई ठोस योजना क्यों नहीं?
- क्या सरकार जानबूझकर शिक्षा को बाजार के हवाले कर रही है?
आज यह सवाल सिर्फ शिक्षा का नहीं —गरीब और मध्यम वर्ग के भविष्य का है।
शिक्षा बचाइए — वरना अगली पीढ़ी खो जाएगी
सरकार चाहे जितना दावा कर ले, लेकिन सच यह है कि सरकारी स्कूलों का पतन प्राकृतिक नहीं, बल्कि नीतिगत अपराध है। सरकार को चाहिए कि वो फाइलों की राजनीति छोड़कर, जमीन पर काम शुरू करे। सरकारी स्कूलों को बंद न करें, बल्कि उन्हें मजबूत बनाएं — पर्याप्त शिक्षक, बेहतर Infrastruktur (प्रयोगशाला, लाइब्रेरी, बिजली, साफ़–सफाई), पाठ्यक्रम, देख-रेख। शिक्षा को किसी कीमत पर बाज़ार नहीं बनाना चाहिए — यह बच्चों का भविष्य है, समाज की नींव है। अगर सरकार सचमुच जिम्मेदार होती, तो निजी स्कूलों का तांडव न होता; बच्चों को शिक्षा का बोझ अपने माता-पिता पर ना पड़ता। आज समय है — बच्चों का भविष्य बचाने का, शिक्षा को अधिकार और कर्तव्य दोनों बनाये रखने का।अगर सरकार अपनी सोच और नीति नहीं बदलेगी तो आने वाले समय में
- सरकारी स्कूल खत्म,
- निजी स्कूलों का साम्राज्य,
- और गरीबों के बच्चों के लिए शिक्षा दुर्लभ हो जाएगी।
शिक्षा को बाजार नहीं बनने देना चाहिए —यह बच्चों का हक़ है, समाज की नींव है, और किसी सरकार को यह अधिकार नहीं कि वह उसे कमजोर करे।
