क्या बैंक मर्जर, बड़े घोटालों का बोझ छिपाने की ‘रणनीति’ है? 15 भगोड़े देश का ₹580000000000 लूटकर भागे

✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

बैंकों का घोटाला, आम आदमी का भरोसा, सरकार की खामोशी

देश में आर्थिक भ्रष्टाचार और बैंकिंग घोटालों की सुनामी के बीच State Bank of India (SBI), Punjab National Bank (PNB) और अन्य सार्वजनिक बैंकों के खातों में लापता हजारों करोड़ रुपये का आंकड़ा अब सामने आया है। 31 अक्टूबर 2025 तक, 15 ऐसे नामी-गिरामी कारोबारियों को — जिन पर बैंकिंग लोन लेकर देश छोड़ने और भागने का आरोप है — औपचारिक रूप से Fugitive Economic Offenders Act, 2018 (FEOA) के तहत “भगोड़ा आर्थिक अपराधी” घोषित किया जा चुका है।
लेकिन सवाल यह है — इतनी बड़ी राशि बैंकों से वसूली क्यों नहीं हुई? और क्या सरकार व बैंक वाकई गंभीर हैं, या महज दिखावा कर रही हैं? कौन-सी ऐसी ताकत है जिसके सामने सरकार और बैंक दोनों घुटने टेककर बैठ जाते हैं? पिछले 11 साल से केंद्र में भाजपा की सरकार है। कानून, संसाधन, एजेंसियाँ, बैंकिंग ढांचा—सब कुछ इनके हाथ में है। लेकिन इतना बड़ा आर्थिक अपराध होने के बावजूद क्यों न तो आरोपी देश लौटे, न पूरी वसूली हुई, न ही कोई ठोस कार्रवाई?

सरकार की ढिलाई या रसूखदारों के प्रति अदृश्य नरमी?

एक ओर सरकार रोज नई-नई नीतियाँ, कार्यक्रम और योजनाओं की लंबी सूची पेश करती है—लेकिन इन 15 भगोड़े आर्थिक अपराधियों पर कार्रवाई का मामला अब भी फाइलों में धूल फांक रहा है। सरकार कहती है—“कुल 19 हजार करोड़ वसूले जा चुके हैं।” लेकिन क्या यह उपलब्धि है या 58 हजार करोड़ के घोटाले को ढकने का तरीका? क्योंकि 33% रिकवरी से संतोष जताना, यह साफ दर्शाता है कि सरकार इस मामले को गंभीर मानने को ही तैयार नहीं।

  • 33 % वसूली का आंकड़ा सुनने में बहुत दिखता है — लेकिन वास्तविकता यह है कि 67 % राशि अभी भी बकाया है। इतने बड़े घोटाले में बैंक व सरकार के पास समय, संसाधन और कानून — सब हैं, फिर इतनी धीमी रिकवरी क्यों?
  • अगर देखा जाए, तो विज‎य माल्या पहले ही कह चुके हैं कि सरकार व बैंकों के आंकड़ों में गड़बड़ी है। उन्होंने लोकसभा में दिए गए आंकड़ों को “गलत व भ्रामक” बताया है — उनका कहना है कि वास्तविक वसूली और सरकार के दावों में ₹ 4,000 करोड़ का अंतर है।
  • इस तरह की असंगतियाँ बैंकों और सरकार दोनों के लिए शर्मनाक हैं। अगर आंकड़ों की विश्वसनीयता नहीं, तो वसूली का दावा ही खोखला लगने लगता है।
  • सरकार और बैंक अक्सर बताते हैं कि चल-अचल संपत्तियाँ जब्त कर बेच दी गयीं, नीलामी हुई — लेकिन वास्तविक स्थिति आज भी यही है कि अधिकांश बकाया अंकों में है। यह दिखावा है कि बैंक सजग हैं, जबकि असलियत बहुत धीमी और अनियमित है।

बैंकिंग सिस्टम का दोहरा चेहरा—गरीब पर सख्ती, अमीरों पर नरमी

  • आम आदमी अगर कुछ हजार या लाख का लोन लेकर बैंक से जुड़ता है, तो बैंक उसे वसूली के लिए दबाव, फोन, CIBIL खराब कर दी जाएगी, जरूरत पड़ने पर घर तक कुर्क कर लिया जाता हैकानूनी नोटिस भेजने में कभी कोताही नहीं करते। लेकिन जब बात करोड़ों या हजारों करोड़ की होती है — और आरोपी रसूखदार, राजनीतिक या आर्थिक रूप से मजबूत — तब कानून, बैंक और सरकार सब अचानक चुप्।
  • यह असंतुलन, बैंकिंग व्यवस्था और न्याय व्यवस्था दोनों के प्रति आम आदमी का भरोसा तोड़ता है। अगर बैंक 33 % वसूली के बाद भी संतुष्ट हो जाएं, तो यह बताता है कि बड़े धोखेबाज़ों के लिए नियम कुछ और, आम आदमी के लिए कुछ और।

लेकिन—

  • Vijay Mallya, Nirav Modi, Sandesara समूह और अन्य रसूखदार आर्थिक अपराधियों ने
    → हजारों करोड़ लेकर देश छोड़ दिया
    → बैंक चुप
    → सरकार शांत
    → अदालतें धीमी
    → एजेंसियाँ व्यस्त

क्यों?
क्या राजनीति का हाथ इनके सिर पर है?
क्या इनसे जुड़े नाम सरकारों को असहज करते हैं?
या फिर बैंक और सरकार दोनों जानते हैं कि वे इनसे वसूली करने की स्थिति में हैं ही नहीं?

यह फर्क अस्पष्ट है — लेकिन असर गहरा।

क्या बैंक मर्जर, बड़े घोटालों का बोझ छिपाने की ‘रणनीति’ है?

यह सवाल आम जनता के मन में है—और जायज़ भी: क्या बैंकों को मर्ज इसलिए किया गया ताकि उनका घाटा जनता से छुपाया जा सके? क्योंकि—

  • जब SBI में हजारों करोड़ का डूबा कर्ज सामने आया
  • जब PNB, BOI, Canara, Union Bank में अरबों का बकाया खड़ा दिखा, तभी अचानक बैंक मर्जर की नीति आई।

आज भी इन मर्ज हुए बैंकों की बैलेंस शीट में
58 हजार करोड़ का भारी-भरकम जख्म मौजूद है। सरकार को जवाब देना चाहिए— बैंक मर्जर से किसका भला हुआ?
जनता का या घोटालेबाजों का?

11 साल की सत्ता, पर भगोड़ों पर कार्रवाई का रिकॉर्ड ‘सिर्फ घोषणाएँ’

  • UPA पर तो आरोप लगाया गया कि माल्या, नीरव मोदी भागे।
  • लेकिन इनके भागने के बाद 11 साल से इन्हें वापस लाने की प्रक्रिया कहाँ अटकी है?
  • जिम्मेदार कौन?
  • इतने सालों में कितने बड़े आर्थिक अपराधियों को भारत लाया गया? जबकि हम विश्वगुरू का दावा भी करते है।
  • कितने पर पूर्ण वसूली हुई?

सरकार जवाब नहीं देती। सिर्फ वसूली का झूठा भरोसा देती रहती है।

चर्चित नाम — Vijay Mallya, Nirav Modi और अन्य

  • Vijay Mallya के मामले में SBI का बकाया principal ₹ 6,848.28 करोड़ था। ब्याज मिलाकर कुल बकाया ₹ 11,960.05 करोड़ है।
  • वहीं Nirav Modi और उसकी कंपनियों (Diamonds / Firestar आदि) पर करीब ₹ 7,800 करोड़ से अधिक principal बकाया बताया गया है।
  • इसके अलावा, Sterling Biotech / Sterling Global Oil Resources (संदेसरा परिवार) जैसी कंपनियों के नाम भी बकाया खातों में आते हैं — बैंक ऑफ इंडिया, SBI इत्यादि पर भारी कर्ज बकाया है।
  • कुल 15 में से 9 आरोपी ऐसे हैं जिनका संबंध बड़े और सार्वजनिक बैंक घोटालों से है।

सरकारी जवाब के अनुसार, 2 मामलों में एक-बार समझौता (One-Time Settlement) हुआ है। आरोपियों ने बैंकों से समझौता किया है — लेकिन यह समझौता, वसूली की पूरी रकम वापस लाने के लिए पर्याप्त दिखता नहीं।

सवाल जो सरकार और बैंक से पूछे जाने चाहिए

  1. अगर 15 भगोड़े दोषी हैं और 2018 के बाद से FEOA लागू है — तो इतने बड़े चूक के लिए बैंक और सरकार ने अब तक क्या ठोस कदम उठाए?
  2. जिन आरोपियों ने वन-टाइम सेटलमेंट किया — क्या उन पर छूट नहीं दी गयी, और क्या यह अन्य अपराधियों के लिए उदाहरण नहीं बनेगा?
  3. क्या बकाये की राशि (principal + interest) पर रोक नहीं लगाई जाए, ताकि ब्याज रोज गिना न जाए; देना हो तो principal + सीमित ब्याज ही हो?
  4. जब बैंक सख्ती से आम कर्जदारों को वसूली के लिए दबाव डालते हैं, तो बड़े डिफॉल्टर्स को क्यों छूट मिलती है?
  5. क्या बैंकों को मर्ज करने या फिर से संरचना बदलने की नीति वास्तव में घाटा छुपाने के लिए तो नहीं है? इस बड़े घाटे की भरपाई कैसे होगी — आम टैक्सपेयर के पैसे से या बैंक सुधार से?

सबसे बड़ा सवाल — 38 हजार करोड़ रुपये कौन भरेगा?

सरकार नहीं।
घोटालेबाज नहीं।
बैंक नहीं।

तो फिर कौन?

ज़ाहिर है—आम जनता।

यही जनता

  • GST देती है
  • टैक्स देती है
  • महंगाई झेलती है
  • बैंक चार्ज झेलती है
  • ब्याज दरें झेलती है
  • बैंकिंग नियमों की सख्ती झेलती है

और अंत में—घोटालों की कीमत भी वही चुकाती है।

यह लड़ाई सिर्फ घोटालेबाजों की नहीं, लोकतंत्र की साख की है

58 हजार करोड़ सिर्फ एक आंकड़ा नहीं—यह जनता के टैक्स, जनता की उम्मीद, और जनता के भरोसे का मामला है। अगर बड़े घोटालों में आरोपी सजग और संरक्षित रह जाएँ, वसूली आंशिक हो, और आंकड़ों में गड़बड़ी रहे — तो यह देश की बैंकिंग ईमानदारी और न्याय व्यवस्था पर बड़ा प्रहार है। सरकार, बैंक, और विधि — सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भगोड़े सिर्फ नामों में न रह जाएँ; उनको सम्पत्ति, शक्ति और रसूख — सब खोना चाहिए। और आम आदमी को भरोसा मिले कि अगर उसने कर्ज लिया, तो बैंक उसे नहीं, बल्कि नियमानुसार उसे मौका दे; और अगर कोई धोखेबाज़ है, तो कानून सख्ती से उसके लिए बराबर हो।सरकार अगर अब भी ढील दिखाती है, रसूखदार अपराधियों पर कार्रवाई नहीं करती, बैंकिंग मर्जर के पीछे की असलियत नहीं बताती— तो यह साबित हो जाएगा कि सरकार बड़े आर्थिक अपराधियों के आगे झुक चुकी है।

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