✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
देश की राजनीति में मुद्दों की कोई कमी नहीं है—महंगाई सिर पर चढ़ी हुई, बेरोजगारी रिकॉर्ड तोड़ रही, रुपये की हालत अस्पताल के ICU जैसी, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था वेंटिलेटर पर, और किसानों से लेकर मजदूर तक अपनी रोजमर्रा की जद्दोजहद में पिस रहे हैं। पर इन सबके बीच, जब भी चुनाव नजदीक आते दिखते हैं, तब अचानक एक पुराना लेकिन “चिरजीवी” मुद्दा दोबारा उठ खड़ा होता है—अवैध घुसपैठिए! मानो यह देश की राजनीति का सबसे भरोसेमंद “चुनावी टॉनिक” हो, जिसे हर बार नयी पैकेजिंग में जनता के सामने परोसा जाता है।
दिसंबर 2025 में भी वही हो रहा है। “निर्णायक अभियान” नाम देकर एक ऐसा माहौल बना दिया गया है जैसे अगला कदम उठाते ही सारे घुसपैठिए सूटकेस लेकर भारत से पैदल, बस से या उड़कर बाहर चले जाएंगे। बीजेपी के स्टार प्रचारकों से लेकर केंद्रीय नेताओं तक यह बात हर मंच से इस अंदाज में कही जा रही है कि मानो विपक्ष इन घुसपैठियों का स्थायी कंजरवेटर है और सरकार इनके ‘मुक्तिकर्ता’। पर विडम्बना देखिए—न दिल्ली चुनाव में कोई घुसपैठिया मिला और न बिहार चुनाव में।
चुनाव आयोग भी घुसपैठियों का जिक्र करता रहा, मगर जब आंकड़ों की बात आई तो सूनी झोली ही सामने आई।
घुसपैठ का शोर और चुनाव का दौर : क्या यह मात्र संयोग है?
दिसंबर 2025 में “अवैध घुसपैठियों के खिलाफ निर्णायक अभियान” का शोर अपने चरम पर है। टीवी चैनलों से लेकर चुनावी मंचों तक, BJP के नेता इस मुद्दे को ऐसे उछाल रहे हैं जैसे देश की सारी समस्याओं की जड़ सिर्फ यही हों। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और स्टार प्रचारक लगातार जनता को भरोसा दिला रहे हैं—“घुसपैठियों को बाहर निकाल कर ही दम लेंगे।” लेकिन यह दिलचस्प है कि हर बार यह जोश सिर्फ और सिर्फ उसी समय आता है जब चुनाव का मौसम होता है।
दिल्ली चुनाव—घुसपैठिए!
बिहार चुनाव—घुसपैठिए!
अब बारी पश्चिम बंगाल की है—और लीजिए, मुद्दा फिर ढोल-नगाड़े के साथ तैयार है। पर सवाल उठता है…अचानक यह अभियान चुनाव के ठीक पहले ही क्यों तेज हो जाता है? क्या वाकई यह सुरक्षा का मुद्दा है या फिर “सामरिक राजनीति” का हथियार?
आंकड़ों का खेल: घुसपैठियों पर शोर बहुत, कार्रवाई कितनी?
अगर कार्रवाई की बात करें तो जमीन पर तस्वीर चुनावी भाषणों से बिल्कुल उलटी दिखाई देती है। सूत्रों के मुताबिक—
2004 से 2014 के बीच कांग्रेस ने लगभग 90,000 घुसपैठियों को देश से बाहर निकाला।
लेकिन 2014 से 2025 तक की 11 साल की अवधि में बीजेपी सरकार मात्र 5–6 हजार को ही बाहर कर सकी।यह आंकड़ा सिर्फ आंकड़ा नहीं—
यह उस राजनीति की पोल खोलता है जो सिर्फ मंचों पर गूंजती है लेकिन फाइलों में दम तोड़ देती है। सबसे मजेदार बात यह है कि जिन चैनलों को “घुसपैठिया” हर जगह दिख जाते हैं, वे इन आंकड़ों को दिखाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते क्योंकि इससे पूरा चुनावी नरेटिव हिल जाता है।
दिल्ली और बिहार में घुसपैठिए कहाँ गायब हो गए?
दिल्ली और बिहार में चुनाव के समय घुसपैठिए ऐसे चर्चित हुए जैसे बस अगले मोड़ पर सैकड़ों की संख्या में मिलने वाले हों।
“वोट बैंक”, “तस्करी”, “जिहादी नेटवर्क” जैसे शब्दों से मीडिया ने पूरा माहौल गर्माया।लेकिन चुनाव खत्म होते ही जैसे किसी ने रिमोट से आवाज कम कर दी हो—न कोई गिरफ्तारी, न कोई सूची, न कोई कार्रवाई। यहां तक कि चुनाव आयोग भी घुसपैठियों का हवाला तो देता रहा, पर कोई ठोस डेटा पेश नहीं कर सका। तो क्या यह पूरा मुद्दा सिर्फ “चुनावी पेट्रोल” था?
क्योंकि जैसे ही चुनाव शांत हुआ—मुद्दा भी ओझल हो गया।
असम का एनआरसी: 18 लाख की वह सूची, जो सत्ता को रास नहीं आई
असम में NRC की प्रक्रिया के दौरान करीब 18 लाख लोगों के नाम अंतिम सूची से बाहर पाए गए थे। मुद्दा गरम था, माहौल तनावपूर्ण था, और सबको विश्वास था कि “घुसपैठियों” पर अब बड़ी कार्रवाई होगी। लेकिन जैसे ही यह पता चला कि सूची में सिर्फ बंग्लादेशी मुस्लिम नहीं बल्कि बड़ी संख्या में हिन्दू, सिख, गोरखा, आदिवासी और अन्य देशी समुदायों के लोग भी शामिल हैं—पूरा मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
आज तक असम सरकार, केंद्र सरकार या मीडिया—किसी ने भी इस 18 लाख की फाइल को छूने की हिम्मत नहीं की।
क्योंकि यह फाइल “राजनीतिक नुकसान” पहुंचा सकती थी। जब सूची सत्ता के मुताबिक नहीं निकली, तब वह मुद्दा ही गायब कर दिया गया। यह लोकतंत्र था या चयनित राजनीति—यह जनता समझ रही है।
गृह मंत्रालय की खामोशी और मीडिया का मौन
घुसपैठियों को बाहर करना किस विभाग का काम है? गृह मंत्रालय का। पर अफसोस! न तो मंत्रालय कोई सीधा जवाब दे रहा है, न ही आज के मीडिया में इतनी हिम्मत है कि वह गृहमंत्री से यह पूछ सके कि—
“आखिर 11 साल में कितने घुसपैठिए पकड़े, कितने निकाले?”
गोदी मीडिया की भूमिका यहां खुलकर नजर आती है।वह न सवाल पूछता है, न जांच करता है; वह सिर्फ वही दिखाता है जो सत्ता दिखाना चाहती है। मुद्दे वही बनते हैं जिनसे सत्ता को फायदा हो— सच की कोई कीमत नहीं, TRP की कीमत सबकुछ है।
क्या यह जनता को असली मुद्दों से भटकाने की रणनीति है?
अब असली सवाल—
जब घुसपैठिए चुनाव के बाद गायब,
NRC की सूची गायब,
गृह मंत्रालय के आंकड़े गायब,
तो फिर यह शोर किसलिए?
क्या जनता को असली मुद्दों—
✔ महंगाई
✔ बेरोजगारी
✔ शिक्षा
✔ स्वास्थ्य
✔ रुपये की गिरती कीमत
✔ कानून व्यवस्था
✔ किसानों की हालत
से भटकाने की एक सोची-समझी रणनीति तो नहीं? जब जनता पेट की आग में जले, तब टीवी पर घुसपैठिया—जब युवा नौकरी मांगे, तब टीवी पर मंदिर-मस्जिद— जब रुपये की कीमत गिरे, तब टीवी पर 150 साल का बंदे मातरम समारोह—जब अस्पताल टूटें, तब टीवी पर धार्मिक जलसे—यह संयोग नहीं, रणनीति है।
इतिहास, धर्म और स्मृति कार्यक्रम : राजनीति का नया खेल मैदान
आजकल सरकार किसी न किसी की 100वीं, 125वीं या 150वीं जयंती मनाने में बेहद सक्रिय दिखती है। कभी यह समारोह, कभी वह श्रद्धांजलि, कभी कोई नया कार्यक्रम। वहीं दूसरी तरफ टीवी चैनल लगातार—
“मंदिर”, “मस्जिद”, “श्रध्दा”, “आस्था”—
इन शब्दों से दर्शकों को बांधे रखते हैं। इन धार्मिक-ऐतिहासिक आयोजनों का मकसद क्या सिर्फ राष्ट्रीय सम्मान है? या यह जनता को असली मुद्दों से भटकाने की संगठित कोशिश है? और सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में मीडिया सबसे बड़ा मोहरा बन चुका है।
अब बारी पश्चिम बंगाल की—फिर वही घुसपैठये, फिर वही चुनाव
अब पश्चिम बंगाल में चुनाव का बिगुल बज चुका है। और जैसे हर बार होता है—घुसपैठिए फिर चुनावी मंचों पर स्टार बन चुके हैं। मगर याद रहे—घुसपैठिया एक संवेदनशील मुद्दा है, लेकिन उसका उपयोग सिर्फ चुनावी हथियार के रूप में करना लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ है। क्या इस बार भी जनता मुद्दों को भूल जाएगी? क्या फिर वही नरेटिव चलेगा?
क्या लोग फिर उसी “डर” के सहारे वोट करेंगे? यह चुनाव बताएगा।
राजनीति बदलती नहीं, सिर्फ मुद्दों की पैकेजिंग बदलती है
भारत के चुनावों में घुसपैठ का मुद्दा एक स्थायी किरदार बन चुका है—जो हर चुनाव में दोबारा जीवित होकर मंच पर लौट आता है। बहुत हद तक ऐसा कहा जा सकता है कि यह एक नीतिगत और राजनीतिक चाल हैl परिणाम — देश की सामाजिक एकता, नागरिकता का तात्विक अर्थ, न्यायपालिका की भूमिका, वास्तविक विकास — सब प्रभावित होते हैं। लेकिन असली मुद्दे—महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, किसानों की समस्या— इनपर न चर्चा होती है, न बहस। ऐसा लगता है जैसे सत्ता का असली मकसद यही हो—जनता मुद्दों में उलझी रहे, और सत्ता मुद्दों से बचती रहे। मीडिया इस खेल में महत्वपूर्ण तटस्थ नहीं — बल्कि सक्रिय पार्टी की तरह काम करती है, जिस से डर, अविश्वास, असुरक्षा की हवा बनी रहती है। घुसपैठ का मुद्दा महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका उपयोग सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि चुनावी लाभ के लिए ज्यादा किया जा रहा हैऔर यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
