प्रशांत किशोर–प्रियंका गांधी मुलाक़ात : बिहार की राजनीति में नई पटकथा या फिर एक और राजनीतिक बुलबुला?

✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

राजनीति में कुछ ख़बरें ऐसी होती हैं जो अपने आप में जितनी छोटी दिखती हैं, उतनी ही बड़ी संभावनाओं और आशंकाओं को जन्म देती हैं। जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर और कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी की कथित मुलाक़ात भी कुछ ऐसी ही ख़बरों में शुमार होती है। यह ख़बर ऐसे समय में सामने आई है जब बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आए अभी ठीक एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है । चुनावी नतीजों में जनसुराज को एक भी सीट न मिलना, प्रशांत किशोर की राजनीतिक यात्रा का पहला बड़ा झटका माना जा रहा है। ठीक इसके बाद यानी 15 दिसंबर को यह ख़बर सामने आती है कि प्रशांत किशोर और प्रियंका गांधी के बीच मुलाक़ात हुई है। सवाल यह नहीं है कि मुलाक़ात हुई या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि इसके पीछे की राजनीति क्या है और इससे बिहार तथा राष्ट्रीय राजनीति में क्या संदेश जाता है।

सूत्रों की मानें तो प्रशांत किशोर और प्रियंका गांधी की इस कथित मुलाक़ात में एक अहम मुद्दा “वोट कटने” को लेकर उठा। यह वही सवाल है, जिसने बिहार विधानसभा चुनाव में जनसुराज की भूमिका को लेकर कई राजनीतिक दलों को असहज किया। कहा जा रहा है कि खुद प्रशांत किशोर भी इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि जनसुराज के चुनावी मैदान में उतरने से विपक्षी वोटों का विभाजन हुआ, जिसका सीधा फायदा BJP और NDA को मिला। माना जा रहा है कि इसी संवेदनशील मुद्दे पर दोनों के बीच अनौपचारिक बातचीत हुई।

हालांकि, कांग्रेस इस मुलाक़ात को औपचारिक रूप से कोई तूल देना नहीं चाहती। यही वजह है कि यह मुलाक़ात ऑफ रिकॉर्ड रखी जा रही है। सूत्र बताते हैं कि प्रियंका गांधी निजी तौर पर इस संवाद से इनकार नहीं कर रहीं, लेकिन सार्वजनिक रूप से पार्टी इस विषय पर चुप्पी साधे हुए है। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि कांग्रेस नहीं चाहती कि इस समय प्रशांत किशोर को लेकर कोई संदेश जाए, जिससे पार्टी के अंदर या गठबंधन सहयोगियों के बीच गलत संकेत पहुँचे।

इस रणनीतिक चुप्पी की झलक संसद परिसर में भी देखने को मिली। जब पत्रकारों ने प्रियंका गांधी से प्रशांत किशोर से मुलाक़ात को लेकर सवाल पूछा, तो उन्होंने इसे टालते हुए तीखी प्रतिक्रिया दी। प्रियंका गांधी ने कहा, “ये कोई न्यूज़ है? देश में इतनी समस्याएं हैं। हम वायु प्रदूषण जैसे गंभीर मुद्दे पर संसद में चर्चा की मांग कर रहे हैं और आप इस तरह के सवाल पूछ रहे हैं?” इसके साथ ही उन्होंने पलटकर सवाल दागा कि पत्रकार मौजूदा मंत्रियों द्वारा संसद की कार्यवाही में बाधा डालने जैसे विषयों पर सवाल क्यों नहीं उठाते।

प्रियंका गांधी का यह बयान केवल सवाल टालने का प्रयास भर नहीं है, बल्कि इसके भीतर एक राजनीतिक संदेश भी छिपा है। एक तरफ वह यह जताना चाहती हैं कि कांग्रेस इस समय राष्ट्रीय मुद्दों—जैसे प्रदूषण, संसद की गरिमा और जनहित—पर केंद्रित है। दूसरी तरफ, वह इस मुलाक़ात को सुर्खियों में आने से रोककर पार्टी को किसी अनावश्यक राजनीतिक बहस में उलझने से बचाना चाहती हैं।

लेकिन राजनीति में चुप्पी भी कई बार बयान से ज्यादा बोलती है। प्रियंका गांधी ने न तो मुलाक़ात से साफ इनकार किया और न ही इसकी पुष्टि की। यह रवैया इस आशंका को बल देता है कि पर्दे के पीछे बातचीत जरूर हुई है, लेकिन कांग्रेस फिलहाल इसे सार्वजनिक मुद्दा नहीं बनाना चाहती। खासकर ऐसे समय में जब बिहार की राजनीति बेहद नाज़ुक संतुलन पर टिकी है और वोट कटने का सवाल विपक्षी एकता के लिए गंभीर चुनौती बन चुका है। लेकिन इतना तय है कि प्रियंका गांधी का संसद में दिया गया बयान इस पूरे प्रकरण को और दिलचस्प बना देता है—क्योंकि राजनीति में कई बार जो बात कही नहीं जाती, वही सबसे ज़्यादा मायने रखती है।

वैसे प्रशांत किशोर और गांधी परिवार का रिश्ता नया नहीं है। यह रिश्ता उस दौर से चला आ रहा है जब कांग्रेस लगातार लोकसभा चुनावों में हार का सामना कर रही थी और पार्टी की चुनावी रणनीति दिशाहीन दिखाई दे रही थी। उसी समय प्रशांत किशोर को कांग्रेस के लिए संकटमोचक के रूप में देखा गया। उन्होंने पार्टी के लिए रणनीतिक खाका तैयार किया, ज़मीनी संगठन से लेकर चुनावी नैरेटिव तक कई सुझाव दिए। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी सलाहों को पूरी गंभीरता से नहीं लिया। यही वजह रही कि यह रिश्ता कभी स्थायी साझेदारी में नहीं बदल सका।

साल 2022 में कांग्रेस और प्रशांत किशोर के बीच हुई बातचीत इस कहानी का अहम अध्याय है। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक प्रशांत किशोर कांग्रेस में औपचारिक रूप से शामिल होना चाहते थे। कांग्रेस नेतृत्व ने उनसे बातचीत के बाद ‘Empowered Action Group 2024’ का गठन किया और प्रशांत किशोर को उसमें जिम्मेदारी सौंपते हुए पार्टी में शामिल होने का न्योता दिया। लेकिन प्रशांत किशोर ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके बाद जो बयान सामने आए, उन्होंने दोनों पक्षों के बीच की दूरी को सार्वजनिक कर दिया। कांग्रेस की ओर से कहा गया कि प्रशांत किशोर ने पार्टी में शामिल होने से इनकार किया, वहीं प्रशांत किशोर ने पलटवार करते हुए कहा कि उन्होंने कांग्रेस का ऑफर ठुकराया है और पार्टी को उनसे ज्यादा एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत है जो उसकी जड़ों को मजबूत कर सके। इस बयान में कांग्रेस के प्रति उनकी नाराज़गी साफ झलकती थी। अब सवाल उठता है कि वही प्रशांत किशोर, जो कभी कांग्रेस नेतृत्व पर अप्रत्यक्ष सवाल उठा चुके थे, क्या आज उसी कांग्रेस के साथ नई शुरुआत के लिए तैयार हैं?

इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए बिहार की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को समझना जरूरी है। बिहार में इस समय मुख्य मुकाबला भाजपा, जेडीयू और राजद के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। कांग्रेस यहां लंबे समय से कमजोर स्थिति में है। गठबंधन की राजनीति में वह अक्सर जूनियर पार्टनर की भूमिका में रहती है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद कांग्रेस को जरूरत के हिसाब से साथ रखता है, लेकिन उसे कभी निर्णायक भूमिका देने के मूड में नहीं दिखता। हालिया विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर कांग्रेस को जिस तरह से रुलाया गया, उससे पार्टी के भीतर असंतोष खुलकर सामने आया। कांग्रेस अब यह अच्छी तरह समझ चुकी है कि तेजस्वी यादव उसे केवल मजबूरी में साथ रखते हैं, सम्मानजनक साझेदारी के रूप में नहीं।

दूसरी ओर प्रशांत किशोर की स्थिति भी बदली है। जनसुराज अभियान को लेकर उन्होंने जिस तरह की उम्मीदें जगाई थीं, चुनावी नतीजों ने उन पर पानी फेर दिया। यह सच्चाई अब उनके सामने भी है कि अकेले दम पर बिहार जैसे राज्य में भाजपा और उसके गठबंधन से मुकाबला करना बेहद कठिन है। तेजस्वी यादव के साथ उनकी राजनीतिक केमिस्ट्री बनने की कोई संभावना नहीं दिखती। चिराग पासवान से किसी बड़े राजनीतिक सहयोग की उम्मीद करना भी व्यावहारिक नहीं है। ऐसे में कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी बचती है जिसके पास देशव्यापी नेटवर्क, संसाधन और एक स्थापित ब्रांड है, भले ही बिहार में उसकी जमीनी ताकत कमजोर क्यों न हो।

इसी पृष्ठभूमि में प्रशांत किशोर और प्रियंका गांधी की कथित मुलाक़ात को देखा जाना चाहिए। सूत्रों के हवाले से जो बातें सामने आ रही हैं, वे बेहद दिलचस्प हैं। बताया जा रहा है कि इस मुलाक़ात में प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी के कांग्रेस में विलय तक की बात रखी और बिहार कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर भी चर्चा हुई। अगर यह सच है, तो यह एक बड़ा राजनीतिक संकेत है। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी ने कोई ठोस वादा करने से इनकार किया और कहा कि इस पर पार्टी की शीर्ष नेतृत्व से बात कर आगे निर्णय लिया जाएगा। यह रवैया कांग्रेस के पारंपरिक निर्णय लेने के तरीके से मेल खाता है। कांग्रेस में किसी भी बड़े फैसले से पहले लंबी चर्चा, आंतरिक संतुलन और विभिन्न गुटों की सहमति जरूरी मानी जाती है। यही वजह है कि प्रियंका गांधी ने न तो इस प्रस्ताव को तुरंत खारिज किया और न ही उसे स्वीकार किया। उन्होंने गेंद नेतृत्व के पाले में डाल दी।

अब सवाल यह है कि कांग्रेस को प्रशांत किशोर से क्या फायदा हो सकता है? कांग्रेस यह जानती है कि बिहार में उसका संगठन कमजोर है, उसका कैडर बिखरा हुआ है और नेतृत्व का अभाव है। ऐसे में प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार और राजनीतिक उद्यमी को साथ लाना उसे नई ऊर्जा दे सकता है। प्रशांत किशोर के पास जमीनी सर्वे, डेटा आधारित राजनीति और चुनावी रणनीति का अनुभव है। इसके अलावा जनसुराज अभियान के जरिए उन्होंने बिहार के कई जिलों में नेटवर्क भी खड़ा किया है। अगर यह नेटवर्क कांग्रेस के संगठन से जुड़ता है, तो पार्टी को एक नई शुरुआत का मौका मिल सकता है।

लेकिन यह रास्ता इतना आसान भी नहीं है। कांग्रेस के भीतर एक तबका ऐसा है जो प्रशांत किशोर को संदेह की नजर से देखता है। उन्हें डर है कि अगर प्रशांत किशोर को ज्यादा अहमियत दी गई, तो पारंपरिक कांग्रेसी नेताओं की भूमिका सीमित हो जाएगी। यही वजह है कि कांग्रेस के अंदर यह सोच भी मौजूद है कि अगर प्रशांत किशोर को पार्टी में लाया जाए, तो उन्हें बिहार तक ही सीमित रखा जाए। इससे गांधी परिवार पर कोई सीधा खतरा भी नहीं आएगा और प्रयोग का दायरा भी सीमित रहेगा।

प्रशांत किशोर के लिए भी यह फैसला आसान नहीं है। जनसुराज के जरिए उन्होंने खुद को एक वैकल्पिक राजनीति के चेहरे के रूप में पेश किया था। कांग्रेस में विलय का मतलब होगा उस स्वतंत्र पहचान का अंत। लेकिन बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह भी साफ हो गया है कि केवल वैकल्पिक राजनीति के नारे से सत्ता की राजनीति में जगह बनाना आसान नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उनके लिए रणनीतिक मजबूरी भी हो सकती है।

इस पूरे परिदृश्य में भाजपा और जेडीयू की भूमिका भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती। बिहार में भाजपा और जेडीयू के रिश्ते हमेशा स्थिर नहीं रहे हैं। दोनों के बीच नूरा कुश्ती की संभावना हमेशा बनी रहती है। कांग्रेस इस बात को अच्छी तरह समझती है कि अगर भविष्य में भाजपा-जेडीयू गठबंधन में दरार आती है, तो विपक्ष को मजबूत विकल्प की जरूरत होगी। ऐसे में कांग्रेस पहले से ही अपनी शतरंज की गोटियां बिछाने में जुटी हो सकती है और प्रशांत किशोर उस रणनीति का हिस्सा बन सकते हैं।

फिलहाल यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि यह मुलाक़ात किसी ठोस राजनीतिक समझौते में बदलेगी या नहीं। भारतीय राजनीति में ऐसी कई मुलाक़ातें सिर्फ अटकलों और चर्चाओं तक सीमित रह जाती हैं। लेकिन इतना तय है कि यह ख़बर यूं ही सामने नहीं आई है। इसके पीछे दोनों पक्षों की जरूरतें और मजबूरियां साफ दिखती हैं।

अंततः सवाल वहीं आकर टिकता है—क्या यह मुलाक़ात बिहार की राजनीति में नई पटकथा लिखेगी या फिर यह भी उन ख़बरों की सूची में शामिल हो जाएगी जो कुछ दिनों की सुर्खियों के बाद भुला दी जाती हैं? आने वाले दिनों में कांग्रेस नेतृत्व की प्रतिक्रिया, प्रशांत किशोर की अगली रणनीति और बिहार की बदलती राजनीतिक चालें ही इसका जवाब देंगी। फिलहाल इतना जरूर कहा जा सकता है कि इस कथित मुलाक़ात ने बिहार की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दे दिया है, और यही राजनीति की असली खूबी भी है—जहां हर मुलाक़ात अपने साथ अनगिनत सवाल लेकर आती है।

नोट : यह चैनल प्रशांत किशोर एवं कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी के बीच कथित मुलाक़ात अथवा उससे जुड़े किसी भी बयान की आधिकारिक पुष्टि नहीं करता है। यह समाचार विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स, राजनीतिक सूत्रों एवं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है। प्रस्तुत सामग्री विशुद्ध रूप से विश्लेषणात्मक है। चैनल किसी भी राजनीतिक दल, व्यक्ति या दावे की पुष्टि या समर्थन नहीं करता।

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