भारतीय राजनीति में लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत जनता मानी जाती है। जनता की उम्मीदें उन नेताओं से होती हैं जो जमीनी संघर्ष से निकले हों, जनता की पीड़ा को समझते हों और उसे दूर करने की नीयत रखते हों। लेकिन अफसोसजनक सच्चाई यह है कि पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक दलों ने जनता की आवाज़ को दरकिनार कर फिल्मों और क्रिकेट की चमक-दमक को अपना सबसे आसान हथियार बना लिया है। भीड़ जुटाने और वोट बटोरने के लिए फिल्मी कलाकारों और क्रिकेटरों को टिकट थमा दिया जाता है। सवाल यह है कि आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा और जनता को इससे अब तक क्या हासिल हुआ है?
फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों से दलों को क्या मिलता है?
सच्चाई यह है कि राजनीतिक दल इन सितारों को टिकट देकर तुरंत भीड़ और मीडिया कवरेज पाना चाहते हैं। चुनावी सभाओं में जब कोई फिल्म स्टार मंच पर आता है तो भीड़ स्वतः खिंची चली आती है। क्रिकेटरों की लोकप्रियता का फायदा भी इसी तरह उठाया जाता है। दलों को लगता है कि इससे वोटों का गणित आसान हो जाएगा और मेहनती कार्यकर्ताओं की वर्षों की मेहनत को बस कुछ दिनों में सितारों की लोकप्रियता से साध लिया जाएगा। लेकिन क्या भीड़ जुटाना ही राजनीति का उद्देश्य है? क्या सिर्फ स्टार पावर से लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी?
राजनीति में चमकते सितारे – नाम और प्रदर्शन
अगर भाजपा की ही बात करें तो उन्होंने कई सितारों को राजनीति में उतारा है। भोजपुरी फिल्मों के मशहूर अभिनेता मनोज तिवारी आज उत्तर-पूर्वी दिल्ली से सांसद हैं और भाजपा में मजबूत स्थिति रखते हैं। क्रिकेटर गौतम गंभीर भी भाजपा से सांसद बने। इसी तरह अभिनेता हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं, जबकि अभिनेता सनी देओल गुरदासपुर से लोकसभा पहुंचे। कांग्रेस ने भी कभी अभिनेता राज बब्बर पर भरोसा जताया था। कंगना रावत, अरूण गोविल, स्मृति ईरानी , निरहुआ, जयकिशुन आज भाजपा का दामन पकड़े हुए है। स्मृति ईरानी ने तो कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता राहुल गांधी तक को अमेठी में कभी हराया था। जो शायद पार्टी के किसी नेता के बस की बात नहीं थी। ममता बनर्जी की पार्टी में शत्रुघन सिन्हा भी आज अपनी राजनीति चमका रहे है। इसी क्रम में भोजपुरी गायक और अभिनेता पवन सिंह हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं और आरा से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। यह नया प्रयोग है, अभी देखना बाकी है कि उनकी लोकप्रियता वोटों में तब्दील होती है या नहीं।
लेकिन जब इनके प्रदर्शन की बात आती है, तो तस्वीर बेहद धुंधली दिखती है। इनमें से कितने नेताओं ने अपने विभाग में रहते हुए जनता के लिए कोई ठोस काम किया? क्या सिनेमा और क्रिकेट की तरह राजनीति में भी उन्होंने कोई “हिट प्रदर्शन” दिया? सच तो यह है कि इनका योगदान केवल चुनावी रैलियों तक सीमित रह गया। जनता को इनसे केवल नारों और वादों की गूंज मिली, विकास के मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय करिश्मा देखने को नहीं मिला।
कार्यकर्ताओं की मेहनत बनाम सितारों की टिकट राजनीति
सबसे बड़ा अन्याय यह है कि ज़मीन पर 15–20 साल तक पसीना बहाने वाला कार्यकर्ता टिकट से वंचित रह जाता है, और सितारा हेलीकॉप्टर से आता है और सीधे सांसद बन जाता है। यह लोकतंत्र के लिए एक कड़वा व्यंग्य है। पार्टी के कार्यकर्ता दिन-रात मेहनत करते हैं, जनता के बीच जाकर पार्टी का संदेश फैलाते हैं, झंडा-बैनर उठाते हैं, आंदोलन करते हैं। लेकिन जब चुनाव आता है तो टिकट उन्हें नहीं मिलता, बल्कि अचानक से कोई अभिनेता या गायक parachute उम्मीदवार बनकर उतार दिया जाता है। यह कार्यकर्ताओं के मनोबल पर गहरी चोट करता है। लोकतंत्र का असली सैनिक वह कार्यकर्ता है जो जनता के सुख-दुख में साथ खड़ा रहता है। लेकिन उसे किनारे कर चमक-दमक वाले चेहरों को प्राथमिकता देना लोकतंत्र का अपमान ही माना जाएगा।
जनता की मेहरबानी और सितारों की जीत
यह भी सच है कि जनता भी इन कलाकारों पर मेहरबान होती रही है। फिल्मों में देखे गए नायक या क्रिकेट के मैदान के हीरो को जब चुनावी मंच पर देखा जाता है तो जनता भावनाओं में बहकर उन्हें वोट दे देती है। इस तरह के कई उदाहरण यूपी और बिहार की राजनीति में देखे जा सकते हैं। लेकिन सवाल वही है—जनता को इससे क्या हासिल हुआ? संसद और विधानसभा तक पहुंचने के बाद इन सितारों ने जनता की समस्याओं को हल करने के बजाय अपना राजनीतिक करियर बनाने पर ही ज्यादा ध्यान दिया।
बिहार में नया प्रयोग : पवन सिंह का मामला
भोजपुरी अभिनेता और गायक पवन सिंह का भाजपा में शामिल होना इसका ताजा उदाहरण है। भाजपा ने उन्हें बिहार की आरा सीट से उतारने का फैसला किया है। जाहिर है, पार्टी को उम्मीद है कि पवन सिंह की लोकप्रियता वोटों में तब्दील होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार जैसे जटिल राज्य की राजनीति केवल गीतों और फिल्मों की लोकप्रियता से जीती जा सकती है? यहां बेरोजगारी, पलायन, जातिगत समीकरण और विकास जैसे मुद्दे कहीं बड़े हैं। यदि दल केवल स्टार पावर पर भरोसा करेंगे, तो क्या यह जनता के साथ धोखा नहीं होगा?
लोकतंत्र का क्षरण और भविष्य का संकट
अगर यही सिलसिला चलता रहा तो आने वाले समय में चुनावी मंच पर जनता को नेताओं की जगह सिर्फ सितारे दिखेंगे। संसद बहस का मंच न होकर फिल्मी सेट या स्टेडियम बन जाएगा और तब लोकतंत्र का असली उद्देश्य खो जाएगा। लोकतंत्र की असली ताकत उसकी जड़ में होती है—यानी जनता और कार्यकर्ता। लेकिन यदि राजनीतिक दल लगातार शॉर्टकट अपनाकर फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों पर ही दांव लगाते रहेंगे, तो यह लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करेगा। राजनीति सेवा का क्षेत्र है, अभिनय का नहीं। यहां स्क्रिप्ट लिखी नहीं जाती, बल्कि जनता की समस्याओं को हल करना होता है। लेकिन अफसोस, दल इसे मनोरंजन का मंच बनाते जा रहे हैं।
राजनीति को लौटना होगा जनता की ओर
समय आ गया है कि राजनीतिक दल आत्ममंथन करें। स्टार पावर से चुनाव जीतना आसान हो सकता है, लेकिन इससे जनता की उम्मीदें पूरी नहीं होंगी। कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर चमक-दमक वाले नामों को टिकट देना लोकतंत्र का अपमान है। आज की राजनीति को यह समझना होगा कि विकास केवल नारे या भीड़ जुटाने से नहीं आता। यदि दलों ने अपनी यह “शॉर्टकट राजनीति” नहीं छोड़ी, तो आने वाले समय में जनता का भरोसा ही सबसे बड़ा संकट बन जाएगा।