✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
योजनाओं और शहरों के नाम बदलकर लोकतंत्र नहीं, भ्रम गढ़ा जा रहा है
भारत में राजनीति अब नीतियों से कम और नामकरण से अधिक संचालित होने लगी है। सरकारें बदलती हैं, चेहरे बदलते हैं, लेकिन जनता की समस्याएं जस की तस खड़ी रहती हैं। जब देश महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा हो, तब सत्ता का ध्यान नामकरण पर टिक जाना केवल संयोग नहीं, बल्कि एक राजनीतिक रणनीति का संकेत है। महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, गिरता रुपया, किसानों की बदहाली — ये सब जैसे राजनीति के एजेंडे से गायब कर दिए गए हैं। उनकी जगह ले ली है एक नए और बेहद शोरगुल वाले मुद्दे ने — योजनाओं, शहरों और संस्थानों के नाम बदलने की राजनीति। आज अख़बार उठाइए या टीवी चैनल लगाइए, आपको हर दूसरे दिन यही बहस मिलेगीऔर इस शोर में असली सवाल दबकर रह जाते हैं।सवाल यह नहीं है कि नाम बदले जाएं या नहीं, सवाल यह है कि क्या यही इस देश की प्राथमिकता है?
नाम बदलो और मुद्दे गायब करो : टीआरपी और सत्ता की साझा रणनीति
जैसे ही किसी योजना या शहर का नाम बदलने की खबर आती है, टीवी चैनलों को मानो तीन-चार दिन का मुफ्त टीआरपी पैकेज मिल जाता है। स्टूडियो में बहसें सजती हैं, एंकरों की आवाज़ ऊंची होती है, सत्ता और विपक्ष के प्रवक्ता एक-दूसरे पर चिल्लाते हैं। तर्क कम, शोर ज़्यादा। तथ्य गायब, भावनाएं हावी। नाम बदलने की बहस में न रोजगार होता है, न महंगाई घटती है, न अस्पतालों में डॉक्टर बढ़ते हैं। लेकिन चैनलों का काम चल जाता है और सत्ता को राहत मिल जाती है — क्योंकि जनता का ध्यान असल सवालों से हट चुका होता है। यह संयोग नहीं है कि नाम बदलने की राजनीति अक्सर तब तेज होती है, जब सरकार को नीतिगत मोर्चे पर असहज सवालों का सामना करना पड़ता है।
मनरेगा से गांधी तक : प्रतीकों पर हमला, भावनाओं का दोहन
इन दिनों मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) का नाम बदलने को लेकर देशभर में बहस चल रही है। इससे पहले नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सरदार पटेल जैसे नाम हटाए गए, लेकिन वैसी प्रतिक्रिया नहीं हुई। पर जैसे ही महात्मा गांधी का नाम हटाने की बात आई, पूरा विपक्ष ही नहीं, बल्कि आम जनता का वह वर्ग भी उबल पड़ा, जिसकी आस्था गांधी के विचारों में है। कहते हैं — जिसके हाथ में सत्ता होती है, वह सब कुछ कर सकता है।
और वही हुआ। संसद में विकसित भारत- गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) (VB-G RAM G) को मंजूरी मिल गई। बहस हुई, हंगामा हुआ, लेकिन अंततः फैसला सत्ता के पक्ष में गया। यह सवाल आज भी खड़ा है —
👉 क्या योजना का नाम बदलने से ग्रामीणों को ज़्यादा काम मिलेगा?
👉 क्या मजदूरी समय पर मिलने लगेगी?
👉 या फिर यह केवल वैचारिक बदले की राजनीति है?
शहरों और जिलों के नाम बदलने की होड़ : पहचान का संकट
उत्तर प्रदेश इस नाम-परिवर्तन प्रयोगशाला का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुका है। कई जिलों और शहरों के नाम बदले गए, जिनमें से कुछ आज भी लोगों को अटपटे लगते हैं।
उत्तर प्रदेश में बदले गए कुछ प्रमुख नाम (उदाहरण):
- इलाहाबाद → प्रयागराज
- फैजाबाद जिला → अयोध्या
- मुगलसराय → पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर
- प्रतापगढ़ → बेलादेवी
- मडुआडीह रेलवे स्टेशन → बनारस
आज हालत यह है कि बाहर से आने वाला व्यक्ति बनारस, वाराणसी और काशी के नामों में ही उलझ जाता है। पहचान स्पष्ट होने के बजाय और जटिल हो गई है। नाम बदले, लेकिन क्या शहरों की समस्याएं बदलीं? ट्रैफिक, प्रदूषण, जाम और अव्यवस्था—सब जस के तस हैं।
योजनाओं के नाम बदलने का सिलसिला : नीति वही, पोस्टर नया
नाम बदलते ही दावा किया जाता है कि यह नई सोच और नए भारत की शुरुआत है, जबकि ज़मीनी सच्चाई में लाभार्थी वही और परेशानियां वही रहती हैं। सिर्फ शहर ही नहीं, योजनाओं के नाम बदलना भी एक चलन बन गया है। नीति अक्सर वही रहती है, बजट भी लगभग वही, लेकिन पोस्टर नया, नाम नया और श्रेय नया।
कुछ योजनाएं जिनके नाम बदले गए या रीब्रांड किए गए:
- इंदिरा आवास योजना → प्रधानमंत्री आवास योजना
- राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण → सौभाग्य योजना
- राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना → आयुष्मान भारत
- मनरेगा → विकसित भारत- गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) (VB-G RAM G)
नाम बदलते ही सरकार दावा करती है — नई योजना, नया भारत! जबकि ज़मीनी सच्चाई में लाभार्थी वही, समस्याएं वही।
धर्म, ध्रुवीकरण और वोट बैंक : असली राजनीति यहीं है
इस पूरी कवायद के पीछे राजनीति का मूल उद्देश्य छिपा है—ध्रुवीकरण। धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों के सहारे भावनाएं जगाई जाती हैं। हिंदू–मुस्लिम विमर्श को हवा मिलती है, जिससे चुनावी लाभ भी मिलता है और मीडिया को टीआरपी भी। इस प्रक्रिया में जनता भी अनजाने में दो खेमों में बंट जाती है और मूल मुद्दों पर सवाल पूछने की जगह किसी न किसी पक्ष की जी-हजूरी में लग जाती है।इस पूरी प्रक्रिया के पीछे राजनीति ही सबसे बड़ा कारण है। धर्म और संप्रदाय के नाम पर भावनाओं को उकसाया जाता है।
हिंदू–मुस्लिम फैक्टर वह हथियार है, जो भाजपा को जहां चुनावी लाभ देता है, वहीं चैनलों को मसाला। नाम बदलो → पहचान की बहस छेड़ो → भावनाएं भड़काओ → वोट पक्का करो। और इस दौरान महंगाई चर्चा से बाहर, शिक्षा गायब, स्वास्थ्य हाशिये पर, बेरोज़गारी अदृश्य।
आर्थिक नुकसान : करोड़ों खर्च, शून्य लाभ
नाम बदलने की कीमत केवल वैचारिक नहीं, आर्थिक भी है। नाम बदलने की इस राजनीति का सबसे खतरनाक पहलू है — आर्थिक नुकसान।
- सरकारी बोर्ड बदलने में लाखों
- दस्तावेज़, रिकॉर्ड, सॉफ्टवेयर अपडेट में करोड़ों
- रेलवे, सड़क, नगर निगम के नाम बदलने में भारी खर्च
- संसद और विधानसभा में घंटों की बहस — जहां प्रति घंटे लाखों रुपये खर्च होते हैं
यह वही समय और पैसा है, जो स्कूल, अस्पताल और रोजगार पर लगाया जा सकता था। लेकिन वहां बहस नहीं, नाम पर नूरा-कुश्ती होती है।
नाम नहीं, काम चाहिए
देश को आज नाम बदलने की नहीं, हालात बदलने की जरूरत है। इतिहास से लड़कर भविष्य नहीं बनाया जा सकता। प्रतीकों को तोड़कर समस्याएं नहीं सुलझतीं। देश को आज नाम बदलने की नहीं, नीति और नीयत बदलने की ज़रूरत है।
इतिहास से लड़कर वर्तमान की समस्याएं नहीं सुलझाई जा सकतीं। प्रतीकों की राजनीति से न रोजगार पैदा होगा, न महंगाई कम होगी। लोकतंत्र की मजबूती नाम बदलने में नहीं, जनता के सवालों के जवाब देने में है। जनता को यह समझना होगा कि
👉 हर नाम-परिवर्तन की बहस के पीछे कोई न कोई असल मुद्दा दबाया जा रहा है।
👉 जब तक हम नामों पर तालियां बजाते रहेंगे, तब तक हमारी ज़िंदगी के सवाल अनसुने रहेंगे।
लोकतंत्र नाम बदलने से नहीं,
जवाबदेही से मजबूत होता है।
