कफ सिरप कांड : बच्चों की मौत, फर्जी फर्मों का जाल, राजनीतिक रसूख और विभागीय चूक — कितनी बड़ी है कफ सिरप माफिया की जड़ें?

✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

देश में बच्चे मरते रहे, मां-बाप चीखते रहे, डॉक्टर बेबस देखते रहे—लेकिन सरकार, विभाग और दवा माफिया की तिकड़ी आराम से बैठी रही। कफ सिरप जैसे साधारण समझे जाने वाले दवा ने 24 से अधिक नन्ही जानें निगल लीं, और तब जाकर सिस्टम जागा। अब वाराणसी, जौनपुर से लेकर दिल्ली तक पूरे फर्जी दवा रैकेट की परतें खुल रही हैं—जिसमें अधिकारी, रसूखदार नेता और माफिया सब शामिल हैं। यह कोई दवा कांड नहीं, बल्कि हमारी सरकार और विभागों की निष्क्रियता, लापरवाही और भ्रष्टाचार का सामूहिक अपराध है। जब मामला मीडिया में आया, तब अचानक कई राज्यों में सिरप बैन हुआ, जांच शुरू हुई। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब मौतें हो चुकी थीं, तभी सरकार और सिस्टम को चेतना क्यों आई? क्या पहले कोई चेतावनी नहीं थी? क्या विभागीय स्तर पर कोई मॉनिटरिंग नहीं की जा रही थी? यह पहला संकेत था कि दवा उद्योग और सरकारी तंत्र दोनों में गंभीर खामियां मौजूद हैं।

आज कफ सिरप देश भर में दहशत बन चुका है और वाराणसी का 100 करोड़ से उपर का फर्जी सिरप रैकेट पूरे सिस्टम की पोल खोल रहा है। फर्जी कंपनियाँ, राजनीतिक संरक्षण, विभागीय मिलीभगत, और माफियाओं का गठजोड़—इस पूरे कांड ने साबित कर दिया है कि भारत में दवाओं की सुरक्षा बच्चों की जान पर नहीं, बल्कि मुनाफाखोरों की जेब पर टिकी है।

घटना कहाँ से शुरू हुई — मौतें हुईं, तब जांच शुरू हुई

कफ सिरप से बच्चों की मौतों का पहला बड़ा प्रकरण मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सामने आया।
सरकारी पुष्टि के अनुसार: शुरुआत में 9–11 बच्चों की मौत, बाद में संख्या बढ़कर 16, 19 और 22 तक गई और 15 अक्टूबर 2025 तक मौतें बढ़कर 24 हो गईं। जब बच्चे मर रहे थे — मौतों की रिपोर्टें आने लगी थीं — उस समय भी अधिकांश सिरप बाजार में खुले रूप में बिक रहे थे। इसने स्पष्ट दिखाया कि क्वालिटी कंट्रोल + निगरानी तंत्र नाकाम था। यदि दवाओं की नियमित जांच, दवाइयों के वेरिएन्ट्स का रैंडम सैंपलिंग, गोदामों का निरीक्षण, वितरण-चैनल की पड़ताल होती, तो शायद ये जहरीली दवाएं समय रहते पकड़ी जा सकती थी।

इनका संबंध “Coldrif” नामक कफ सिरप से पाया गया। जांच हुई तो पता चला कि कफ सिरप Coldrif में Diethylene Glycol की मात्रा अधिक थी. जो जानलेवा होती है। मौतों के बाद केंद्र ने राज्यों को कड़ी एडवाइजरी जारी की —
“2 साल से छोटे बच्चों को किसी भी हाल में कफ सिरप न दें, केवल डॉक्टर की सख्त सलाह पर ही दें।” लेकिन सवाल है कि जब निर्माताओं की क्वालिटी कंट्रोल रिपोर्ट पहले से संदिग्ध थी, तब इसे रोकने में प्रशासन क्यों असफल रहा?

एडवाइजरी के बाद देशभर में हाहाकार — कफ सिरप को लेकर फैली दहशत

मध्य प्रदेश और राजस्थान में बच्चों की मौत के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कफ सिरप को लेकर एडवाइजरी जारी की है। एडवाइजरी में 2 साल से कम उम्र के बच्चों को कफ सिरप न देने और 5 साल तक के बच्चों को भी इससे बचने की सलाह दी गई है। एडवाइजरी जारी होने के बाद पूरे देश में एक प्रकार का पैनिक मोड पैदा हो गया। सब जगह कफ सिरप की सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे। दवा उद्योग से लेकर स्थानीय मेडिकल स्टोर्स तक, कहीं स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं थे।

यह स्थिति इसलिए और ज्यादा गंभीर हो गई क्योंकि कई राज्यों में फर्जी दवाओं या अवैध रूप से तैयार कफ सिरप के मामले सामने आने लगे। यानी एडवाइजरी जारी होते ही ऐसा लगा जैसे कई जगहों पर पहले से चल रहा यह गोरखधंधा अचानक उजागर होने लगा। इससे यह भी संकेत मिलता है कि यह कारोबार लंबे समय से चल रहा था और संबंधित विभाग पूरी तरह से या तो सोया हुआ था या मिले हुए थे।

वाराणसी में फर्जी फर्मों का साम्राज्य — करोड़ों का कफ सिरप रैकेट

वाराणसी में कफ सिरप का मुद्दा इस समय सबसे ज्यादा सुर्खियों में है, क्योंकि यहां सैकड़ों फर्जी फर्मों के माध्यम से 100 करोड़ रुपये से अधिक का गोरखधंधा सामने आ चुका है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि यह कोई दो-चार महीने का खेल नहीं था, बल्कि लंबे समय से चल रहा संगठित रैकेट था जिसमें नकली बिलिंग, फर्जी लाइसेंस, और फर्जी मालिकों के नाम पर कंपनियां बनाई गईं। वाराणसी में स्वास्थ्य विभाग की नाक के नीचे इतनी बड़ी फर्जी फर्में चलती रहीं और किसी को भनक तक न लगी—यह दावा करना बेहद मुश्किल है। यह साफ संकेत है कि यह पूरा खेल उच्च स्तर की संरक्षण व्यवस्था के बिना संभव नहीं था। देखते-देखते इस रैकेट से जुड़े लोग मालामाल हो गए, करोड़ों की संपत्तियां खड़ी की गईं, महंगी गाड़ियां खरीदी गईं। लेकिन विभाग को न कुछ दिखाई दिया और न उसने कोई कार्रवाई की, जब तक मामला पूरी तरह मीडिया की सुर्खियों में नहीं आया।

राजनीतिक रसूख, माफिया और अधिकारियों की मिलीभगत — नामों की लंबी सूची

जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ रही है, इस रैकेट में राजनीतिक रसूखदारों, अधिकारियों, माफियाओं और स्थानीय नेटवर्क के नाम खुलते जा रहे हैं। इसमें जौनपुर के पूर्व विधायक धनंजय सिंह का नाम सुर्खियों में है। आरोप है कि उनके करीबी सिपाही ओमप्रकाश की इस पूरे रैकेट में अहम भूमिका थी। जांच एजेंसियां यह भी खंगाल रही हैं कि ‘टाटा’ नामक व्यक्ति की इसमें क्या भूमिका रही। रैकेट कितना बड़ा और संगठित है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी अकेले इतने बड़े स्तर पर कार्य नहीं कर सकता। फर्जी लाइसेंस से लेकर फर्मों के पंजीकरण तक—हर कदम पर विभागीय हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। इसका मतलब यह खेल ऊपर तक जुड़ा हुआ था।

शुभम की भूमिका और पुलिस की नाकामी — वीडियो जारी कर खुद को बताया बेगुनाह

सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब करोड़ों की कफ सिरप बिक्री का दावा करने वाला शुभम, जिसे पुलिस और कई एजेंसियां तलाश रही थीं, अचानक एक वीडियो जारी करता है। वीडियो में वह न सिर्फ खुद को बेकसूर बताता है बल्कि एक वरिष्ठ अधिकारी पर उसे फसाने का ओराप लगाते हुए कहता है कि उसने सारी कार्रवाई नियम और कानून के अनुसार की है।

शुभम सीधे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से गुहार लगाता है कि उसकी बात सुनी जाए। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि अगर पुलिस और एजेंसियों ने वास्तव में उसे तलाश किया था तो वह इतनी आसानी से वीडियो कैसे जारी कर देता है? क्या उसे पकड़ने की कोशिशें सिर्फ दिखावा थीं? या फिर किसी की संरक्षा उसे मिल रही है?यह घटना पूरी जांच की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल उठाती है।

विभागीय उदासीनता — अधिकारी सोते रहे या कमीशन चलता रहा?

इतनी फर्जी कंपनियाँ, इतने बड़े ट्रांजैक्शन, इतनी सप्लाई—यदि विभाग जागरूक होता तो यह रैकेट कभी नहीं चलता। लोगों के मन में स्वाभाविक सवाल उठ रहे हैं:

  • क्या दवा विभाग सिर्फ कागज चेक कर रहा था?
  • क्या अधिकारियों को रैकेट की भनक नहीं थी?
  • या फिर सबकुछ “कवर” में चल रहा था?

जब इतने बड़े पैमाने पर फर्जी फर्में चल रही थीं, करोड़ों की दवाओं का लेन-देन हो रहा था, बच्चों की जान जा रही थी, तब स्वास्थ्य विभाग क्या कर रहा था? यह मानना मुश्किल है कि विभाग को कुछ पता नहीं था। दवा लाइसेंस, बिलिंग, स्टॉक की एंट्री, इनवॉइस—सबके लिए विभागीय अनुमोदन जरूरी होता है। ऐसे में विभाग का यह कहना कि उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, विश्वसनीय नहीं लगता। यह सवाल सिर्फ वाराणसी का नहीं है बल्कि पूरे देश के स्वास्थ्य तंत्र पर सवाल है—क्या विभाग सोता रहा, या मलाई काटता रहा?सच यह है कि सिस्टम लंबे समय से टूटा हुआ था, पर किसी ने इसे ठीक करने का प्रयास नहीं किया।

केंद्र और यूपी सरकार की चुप्पी — अपर्याप्त और औपचारिक बयान

इस मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए उम्मीद थी कि केंद्र सरकार, विशेषकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, इस पर कोई ठोस बयान देंगे। लेकिन अब तक जो बयान आए हैं वे अत्यंत औपचारिक रहे हैं। इस स्तर के मुद्दे पर न तो किसी विशेष जांच समिति का गठन हुआ, न किसी उच्च स्तरीय मीटिंग की जानकारी दी गई। मृत बच्चों के परिवारों को भी अब तक किसी ठोस आश्वासन की प्रतीक्षा है।

इसी तरह यूपी में यह रैकेट जिस पैमाने पर सामने आ रहा है, उसमें प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री की ओर से भी कोई बहुत कड़ा या निर्णायक बयान नहीं आया। उनके बयान सिर्फ औपचारिकता तक सीमित रहे, जबकि यहां सवाल पूरे स्वास्थ्य तंत्र की साख पर है। सरकार की यह चुप्पी या धीमी प्रतिक्रिया गहरा संदेह पैदा करती है कि कहीं इसमें ऊपर तक की मिलीभगत तो नहीं?

सरकार और विभाग की जिम्मेदारी — एक तीखा, लेकिन जरूरी सवाल

देश में जब भी कोई बड़ा घोटाला सामने आता है—बच्चों की मौत, दवाओं की गुणवत्ता, अस्पतालों की लापरवाही—सरकार और विभाग सिर्फ तभी सक्रिय दिखते हैं जब नुकसान हो चुका होता है। इसे क्या प्रशासनिक अक्षमता कहें या फिर उदासीनता? कफ सिरप कांड भी इसी श्रेणी में आता है। यदि समय पर निगरानी होती, फर्जी लाइसेंस रोके जाते, विभाग अपने अधिकारियों पर नियंत्रण रखता, तो शायद बच्चों की जानें बच सकती थीं। यह स्पष्ट है कि जिम्मेदारी सिर्फ एक दो व्यक्तियों की नहीं है। यह विफलता पूरे स्वास्थ्य तंत्र, राज्य सरकार, केंद्र सरकार, और उन सभी अधिकारियों की है जिन्होंने वर्षों तक आंखें मूंदे रखीं। कड़ी कार्रवाई और कठोर निगरानी तंत्र की आवश्यकता है। वरना ऐसे रैकेट भविष्य में भी पनपते रहेंगे, और सबसे ज्यादा नुकसान होगा आम नागरिकों का—खासकर बच्चों का।

यह सिर्फ एक कांड नहीं, पूरे सिस्टम की असलियत का आईना है

कफ सिरप कांड ने यह साबित कर दिया है कि भारत में दवा उद्योग पर नियंत्रण बेहद कमजोर है, विभागीय निगरानी ढीली है, और सरकार की प्रतिक्रिया अधिकांश मामलों में घटना के बाद ही आती है। दवाओं की गुणवत्ता एवं वितरण पर प्रशासन की कम-ज़्यादा सतर्कता लगातार अनदेखी करती रही है। यदि मान्यता, लाइसेंस, निर्माण प्रक्रिया, कच्चे माल की जांच, इन सब पर बराबर ध्यान दिया गया होता — तो शायद यह त्रासदी सामने ही न आती। 700+ निर्माताओं की सूची बताती है कि समस्या “एक कंपनी” या “एक ब्रांड” तक ही सीमित नहीं, यह पूरे फर्मा-सैक्टर से जुड़ी है। मतलब हर स्तर — निर्माताओं से लेकर वितरकों तक — में कमजोरियाँ थीं।अगर इस पूरे मामले की निष्पक्ष और सख्त जांच नहीं होती, तो यह रैकेट फिर किसी नए नाम और नए स्वरूप में वापस आएगा।

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