Bihar का पहला चरण : वोटों की बरसात और दावों की बाढ़ — सियासत की पिच पर किसके बल्ले में दम?

भीड़ भी आई, बयार भी चली, और संकेत भी

Bihar विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान समाप्त हो चुका है और इसके साथ ही राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं की गर्मी और तेज हो गई है। मौसम कैसा था, यह गौण हो गया; असल तापमान तो बूथों पर मतदाताओं की कतारों ने बढ़ा दिया। इस दौर में वोटिंग प्रतिशत उत्साहजनक रहा और यह बात खुद में एक संकेत है। बिहार की राजनीति में जो बात सबसे खास है, वह यह कि यहाँ मतदाता प्रचार के दौरान कम बोलता है, लेकिन मतदान और नतीजों के समय उसकी चुप्पी का अर्थ बहुत गहरा निकलता है। इस बार भी वही कहानी दोहराई गई—बूथों पर भीड़ थी, पर चेहरों पर मौन स्थिर था। लेकिन अगर इस मौन को ध्यान से पढ़ा जाए, तो बहुत कुछ समझ में आता है।

प्रथम चरण में जिन क्षेत्रों में मतदान हुआ, वहाँ मतदाताओं की सक्रियता में खास भूमिका महिलाओं और युवाओं की रही। बिहार में पिछले कुछ चुनावों से महिलाएँ निर्णय लेने वाली मतदाता बन चुकी हैं। वे भावनाओं या जातीय नारों से कम और जीवन की आवश्यकताओं, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा व बेहतर जीवन अवसरों पर अधिक ध्यान देती हैं। इस बार भी महिला मतदाताओं की लंबी कतारों ने राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान खींचा। युवा मतदाताओं की भागीदारी ने यह दिखाया कि यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन या सत्ता पुनर्प्राप्ति का चुनाव नहीं, बल्कि उम्मीदों की दिशा तय करने वाला चुनाव हो सकता है।


प्रशांत किशोर: क्या सच में बने गेमचेंजर, या सिर्फ कथा का नया पात्र?

प्रशांत किशोर, जिन्हें बिहार और राष्ट्रीय राजनीति दोनों में रणनीतिकार के रूप में जाना जाता रहा है, इस बार सीधे जनता के बीच उतरे। उनकी पदयात्रा लंबी थी, भाषण सरल थे और मुद्दे सीधे जनता के जीवन से जुड़े हुए। इससे यह जरूर हुआ कि बिहार के राजनीतिक विमर्श में एक नया विचार-स्तर जोड़ दिया गया। युवा वर्ग और पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग PK की बातों को ध्यान से सुन रहा है और उन्हें एक वैकल्पिक राजनीतिक विकल्प समझने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, वास्तविक चुनावी समीकरणों में प्रभाव डालने की प्रक्रिया धीमी दिखी। ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक नेतृत्व और जातीय संरचना का असर अब भी मजबूत है। इसलिए प्रथम चरण में यह साफ दिखाई दिया कि PK की मौजूदगी से माहौल बदला है, लेकिन सीटों के गणित में बड़े स्तर की उथल-पुथल फिलहाल नहीं देखी गई। उन्हें सीधा गेम चेंजर नहीं, बल्कि गेम का ताल बदलने वाला खिलाड़ी कहा जा सकता है।


तेज प्रताप यादव: छवि, व्यक्तित्व और संगठन पर प्रभाव

राजद के भीतर तेजस्वी यादव के नेतृत्व को अब परिपक्व, संयमित और योजनाबद्ध माना जा रहा है। वहीं तेज प्रताप यादव का व्यक्तित्व अब भी भावुक, अप्रत्याशित और कभी-कभी विवादों से प्रभावित रहता है। इस चुनाव में यह बात साफ दिखी कि तेजस्वी की छवि ने राजद को एक सुगठित और भविष्यवादी पार्टी के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन तेज प्रताप के कुछ बेमेल वक्तव्य और आंतरिक मतभेदों ने राजद को मनोवैज्ञानिक नुकसान जरूर पहुंचाया। यद्यपि यह नुकसान बहुत बड़ा नहीं था, पर यह उन मतदाताओं पर असर डाल सकता है जो पार्टी की स्थिरता को प्राथमिकता देते हैं।


कांग्रेस: गठबंधन में मौजूद, पर प्रभाव में सीमित

कांग्रेस की भूमिका इस चरण में सीमित दायरे में दिखाई दी। न जन-संपर्क में वह ताकत थी और न ही उम्मीदवारों के ज़मीनी प्रभाव में व्यापकता। पार्टी गठबंधन में होने के बावजूद सह-नायक के बजाय एक सहायक की भूमिका में दिखी। कई सीटों पर संघर्ष जरूर रहा, लेकिन कांग्रेस उस ऊर्जा और संगठनात्मक दृढ़ता को प्रदर्शित नहीं कर सकी, जो चुनावी मुकाबले को गहरा बना सके। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस के लिए बिहार में सम्मानजनक उपस्थिति बनाए रखना ही इस चरण का मुख्य लक्ष्य प्रतीत हुआ।


राजद: पुरानी पकड़ और नई रणनीति का मिश्रण

पहले चरण के क्षेत्रों में राजद की पकड़ पहले से ही मजबूत थी। लेकिन इस बार दिलचस्प बात यह रही कि राजद का समर्थन केवल परंपरागत वोट-बेस के भरोसे नहीं टिका, बल्कि युवाओं, किसानों और रोजगार को लेकर सवाल उठाने वाले वर्ग में यह समर्थन एक नए रूप में दिखाई दिया। तेजस्वी यादव की शांत, सुनियोजित और संतुलित छवि ने उन मतदाताओं को प्रभावित किया जो पहले ‘अस्थिर शासन’ की छवि से दूरी बनाए रखते थे। इस लिहाज से, राजद इस चरण में लाभ की स्थिति में दिखाई दी।


चिराग पासवान: भावनात्मक विरासत और रणनीतिक जोखिम

चिराग पासवान ने इस चुनाव में अपनी राजनीतिक पहचान और महत्वाकांक्षा दोनों को खुलकर सामने रखा। उन्होंने जदयू के खिलाफ तीखी रणनीति अपनाई, पर भाजपा के साथ रिश्ते को पूरी तरह नहीं तोड़ा। इससे एक तरह का तीन-तरफा समीकरण बना। उनके इस कदम ने नीतीश कुमार के वोट-बेस में हल्की दरार जरूर डाली। हालांकि यह दरार कितनी गहरी होगी, यह आने वाले चरण तय करेंगे। मगर इतना निश्चित है कि चिराग पासवान ने इस चुनाव को एक सीधी लड़ाई बनने नहीं दिया, बल्कि इसे बहु-स्तरीय मुकाबले में बदल दिया।


नीतीश कुमार: अनुभव की मजबूती, नेतृत्व की थकान

नीतीश कुमार लंबे समय से बिहार की राजनीति की धुरी रहे हैं। उनके शासन मॉडल में कई महत्त्वपूर्ण योजनाएँ और सुधार शामिल रहे हैं। लेकिन इस बार एक थकान-सी दिखाई दी—नेतृत्व की नहीं, बल्कि जन-विश्वास की। शराबबंदी की नीति, बेरोजगारी का सवाल, और सरकारी व्यवस्था की थकावट ने जनमानस को दो हिस्सों में बाँट दिया। पहले चरण में नीतीश कुमार रक्षात्मक मुद्रा में अधिक दिखे। वे हवा को अपने पक्ष में मोड़ पाने के लिए उतनी ऊर्जा और लय नहीं ला सके।


भाजपा: मजबूत संगठन, पर शासन-विरोध का भार

भाजपा इस चुनाव में संगठन, प्रचार और संसदीय नेटवर्क के मामले में अब भी मजबूत है। उसके कार्यकर्ता बूथ स्तर तक सक्रिय रहे और चुनावी प्रबंधन मजबूत रहा। लेकिन भाजपा को नीतीश कुमार के नेतृत्व-विरोध का भार भी झेलना पड़ा। कई सीटों पर यह स्थिति स्पष्ट दिखी कि भाजपा कार्यकर्ता लड़े भी और साथ ही सरकार-विरोध की छाया भी उनके साथ चलती रही। फिर भी भाजपा की चुनावी मशीनरी ऐसी है कि वह कमज़ोर जमीन पर भी मुकाबला करने में सक्षम रहती है। यही कारण है कि वह इस चरण में प्रतिस्पर्धा की स्थिति में बनी रही।


बम्पर वोटिंग और संकेत: हवा किस तरफ?

बिहार के मतदान इतिहास में यह साफ दर्ज है कि जब वोटिंग प्रतिशत बढ़ता है, तो अक्सर बदलाव की ओर संकेत होता है। इस चरण में महिलाओं और युवाओं की सक्रियता, सरकारी वादों से असंतोष, और स्थानीय मुद्दों की प्रमुखता ने यह संकेत दिया कि राजद गठबंधन फायदा लेता हुआ दिखाई देता है। भाजपा और NDA संघर्ष की स्थिति में हैं, जबकि PK और चिराग ने चुनावी मैदान में मनोवैज्ञानिक और समीकरणगत हलचल जरूर पैदा की है। कांग्रेस इस मुकाबले में पिछली सीट पर दिखी।


यह तो पहला रण है, युद्ध अभी बाकी

प्रथम चरण के वोटिंग पैटर्न से जो तस्वीर बनती दिखाई दी, वह यह कि हवा का झुकाव राजद-गठबंधन की ओर है। NDA में दबाव बढ़ा है और भाजपा को रणनीति और ऊर्जा दोनों को और अधिक मजबूत करना होगा। नीतीश कुमार के लिए यह एक चेतावनी है कि उनकी पुरानी छवि अब अकेले संघर्ष नहीं करा पाएगी। चिराग पासवान और प्रशांत किशोर ने जमीन को हिला दिया है, हालांकि परिणामों को बदलने का स्तर अभी भविष्य पर निर्भर है। कांग्रेस की स्थिति सपाट रही।

लेकिन याद रखिए—यह सिर्फ पहला चरण था।
बिहार का मतदाता चुप्पी में बुद्धिमानी और अंतिम क्षण में समीकरण बदल देने की कला अच्छी तरह जानता है।
आने वाले चरण ही तय करेंगे कि हवा चल रही है या तूफ़ान आने वाला है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *