✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
जब चुनाव दूर हैं, तो यह हड़बड़ी क्यों?
देश के 12 राज्यों में अचानक तेज़ी से शुरू हुआ SIR (Special Summary Revision) कई सवाल खड़ा कर रहा है। घर-घर पुनरीक्षण कार्य यह काम 4 नवंबर से 4 दिसंबर तक यानी सिर्फ एक महीने की अवधि में पूरा करने का आदेश दिया गया है। जबकि इन 12 राज्यों में से कई में चुनाव 2027–2028 तक होने हैं। यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जब चुनाव इतने दूर हैं तो यह असमय जल्दबाजी क्यों? यह बात भी अहम है कि पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग पर पक्षपात, धीमी कार्रवाई और राजनीतिक दबाव के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में SIR की यह अचानक की गई तेज़ प्रक्रिया उन आरोपों को और गहरा करती है।यह प्रक्रिया मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025 से शुरू होकर 7 फरवरी 2026 तक चलेगी। इस चरण में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, राजस्थान, केरल, गुजरात, गोवा, पुडुचेरी, लक्षद्वीप और अंडमान-निकोबार शामिल हैं।
SIR की समय-सीमा और कार्यक्रम
गणना पत्रों की छपाई व बीएलओ प्रशिक्षण: 28 अक्टूबर से 3 नवंबर
घर-घर पुनरीक्षण कार्य: 4 नवंबर से 4 दिसंबर
मतदाता सूची मसौदा प्रकाशन: 9 दिसंबर
दावे और आपत्तियाँ: 9 दिसंबर से 8 जनवरी 2026
दस्तावेज सत्यापन और सुनवाई: 9 दिसंबर से 31 जनवरी 2026
अंतिम सूची का प्रकाशन: 7 फरवरी 2026
BLO पर पहाड़ जैसा बोझ—और अफसरों की खानापूर्ति
बीएलओ को इस बार लगभग 900 से 1000 घरों की जिम्मेदारी दी गई है, वह भी सिर्फ एक महीने में पूर्ण करने की। न तो सही ट्रेनिंग, न स्पष्ट निर्देश, बस बंडल थमा कर मैदान में उतार दिया गया।
जमीनी स्तर पर स्थिति यह है कि—
• दो फॉर्म देने का नियम है, लेकिन अधिकांश जगह सिर्फ एक ही फॉर्म दिया जा रहा है।
• कई बीएलओ दबाव में दो फॉर्म देना संभव ही नहीं मानते।
यह भी सच है कि नागरिक के पास दूसरा फॉर्म रहना चाहिए ताकि अगर बीएलओ फॉर्म जमा न करे या खो दे तो उसके पास प्रमाण हो। लेकिन इतनी अफरातफरी में अधिकांश लोगों को यह सुविधा नहीं मिल रही। अफसर सिर्फ मीटिंगों और कागजी कार्रवाई में व्यस्त हैं। जमीनी निरीक्षण लगभग नाममात्र है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सिस्टम की रीढ़ पर बोझ डालकर चुनाव आयोग स्वयं कैसे जिम्मेदारी मुक्त रह सकता है।
UP का 99% फॉर्म वितरण दावा—जमीनी सच्चाई कोसो दूर
यूपी सरकार दावा कर रही है कि 99 प्रतिशत फॉर्म बांट दिए गए हैं, लेकिन गांवों-कस्बों में स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आम आदमी और स्वयं बीएलओ को ही इस प्रक्रिया को समझने में 7–10 दिन लग गए।
• ट्रेनिंग नाम की कोई ठोस व्यवस्था नहीं थी।
• कई बीएलओ खुद कहते हैं कि उन्हें संपूर्ण प्रक्रिया की जानकारी नहीं दी गई।
कागज़ी आंकड़ों और जमीनी सच्चाई में इतना बड़ा अंतर यह दिखाता है कि पूरा सिस्टम केवल दिखावे की उपलब्धियों पर ज्यादा ध्यान दे रहा है, न कि सही और पारदर्शी प्रक्रिया पर।
बिहार मॉडल की वापसी का डर—जहाँ मरे हुए भी जीवित हो गए थे
बिहार में SIR के समय जितनी गड़बड़ियां सामने आई थीं, वे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलताओं में शामिल हैं। वहाँ—
• मृत व्यक्ति वोटर लिस्ट में जीवित दिख रहे थे।
• कई जीवित लोगों के नाम काट दिए गए थे।
• सुप्रीम कोर्ट तक लोग शिकायत लेकर पहुंचे थे कि “हम जीवित हैं!”
आज तेज़ी से चल रहे इस SIR में वही स्थिति दोहराने का खतरा मंडरा रहा है। जब बीएलओ इतने तनाव में काम कर रहे हों तो गलतियाँ होना स्वाभाविक है, और यह गलतियाँ सीधे लोकतंत्र की जड़ पर चोट करती हैं।
क्या मतदाता सूची सुधर रही है या कोई ‘स्क्रिप्ट’ लिखी जा रही है?
सबसे बड़ा संदेह इसलिए उठ रहा है कि—केवल BJP अपने लगभग सभी बूथों पर बीएलओ तैनात कर पा रही है। विपक्षी दलों के पास न संसाधन हैं, न लोग। कई जगह वे बीएलओ को पैसे देकर नियुक्त करते हैं, जो संभव नहीं हो पा रहा।ऐसे में यह पूरी प्रक्रिया अप्रत्यक्ष रूप से एक पक्ष को लाभ और दूसरे पक्ष को नुकसान पहुंचाने जैसा माहौल बनाती है। चुनाव आयोग का उद्देश्य चाहे निष्पक्षता हो, लेकिन उसकी टाइमिंग, तरीका, और दबाव सवालों को और गहरा करते हैं।
एक महीने की जगह तीन महीने क्यों नहीं? आखिर जल्दी किस बात की है?
यदि मतदाता सूची का सुधार वास्तव में जनहित और लोकतंत्र के हित में होता, तो इसे 2–3 महीने में आराम से, व्यवस्थित रूप से कराया जा सकता था। लेकिन आयोग ने इसके विपरीत रास्ता चुना। यह सवाल उठता है—
क्या समय बढ़ाने से अधिक शिकायतें आतीं?
क्या ज्यादा जांच-पड़ताल से वास्तविक त्रुटियाँ सामने आ जातीं?
तीन महीने में यह कार्य और अधिक पारदर्शिता के साथ किया जा सकता था। फिर भी आयोग ने एक महीने की समय सीमा क्यों रखी? यह प्रश्न ही आज पूरे मुद्दे की जड़ है।
क्या यह जल्दबाजी चुनावी मंशा पर प्रश्नचिह्न लगाती है?
लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण आधार है—विश्वसनीय चुनाव प्रक्रिया। यदि वोटर सूची ही गलत हो गई, तो यह लोकतंत्र की रीढ़ को चोट पहुँचाती है। इसलिए जनता को अधिकार है पूछने का—
• आखिर इतनी हड़बड़ी क्यों?
• कौन सा चुनाव इतना निकट है जिसके लिए इतनी भागदौड़ की जा रही है?
• क्या यह तय परिणामों की दिशा में कोई असामयिक तैयारी तो नहीं?
जब संस्थाओं पर पहले से सवाल हों, तब इस तरह की तेज़ प्रक्रियाएँ और भी ज्यादा संदेह पैदा करती हैं।
निष्कर्ष: एक महीने की यह दौड़ लोकतंत्र को भारी न पड़ जाए
SIR आवश्यक है—लेकिन यह जल्दबाजी लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी हो सकती है।
बीएलओ लोकतंत्र के प्रहरी हैं, मजदूर नहीं। उनकी थकान, मौतें और तनाव बताता है कि सिस्टम कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। चुनाव आयोग को चाहिए कि—
• समय बढ़ाए,
• बीएलओ पर बोझ कम करे,
• और पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी व व्यवस्थित बनाए।
वरना यह SIR सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं—
बल्कि लोकतंत्र पर उठता एक बड़ा सवाल बन जाएगा।
