✍️ लेखक: विजय श्रीवास्तव
(स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
बिहार चुनाव खत्म, लेकिन खेल जारी है
बिहार विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुका है। अब सबकी निगाहें मतगणना पर हैं, लेकिन उससे पहले जो खेल चल रहा है, उसने लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। चैनलों पर दर्जनों एक्ज़िट पोल — न जाने कितनी एजेंसियों के नाम, और न जाने कितने मतदाताओं पर किए गए सर्वे। लेकिन सवाल वही — इन सर्वे का असली सच क्या है? कितने विधानसभा क्षेत्रों में यह सर्वे हुए, कितने लोगों से बात की गई, कौन सी एजेंसी थी, उसका मालिक कौन है, और सबसे ज़रूरी — इसकी फंडिंग कहां से हो रही है? एक्ज़िट पोल कराना आसान नहीं — इसमें यात्रा, स्टाफ, तकनीक और विश्लेषण में भारी खर्च होता है। ऐसे में जब यह सब “मुफ्त” में दिखाया जाता है, तो जाहिर है कि कहीं न कहीं कोई बड़ा ‘निवेश’ छिपा है।
आंकड़ों का सच या हवा का झोंका?
लोकसभा से लेकर विधानसभा तक, एक्ज़िट पोल की सटीकता का रिकॉर्ड किसी से छिपा नहीं। कई बार यह पोल पूरी तरह गलत साबित हुए हैं, फिर भी हर चुनाव में इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। असल में, एक्ज़िट पोल अब राजनीतिक औजार नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक रणनीति बन चुके हैं। जिसके पक्ष में हवा बनानी हो, उसी के पक्ष में आंकड़े गढ़ दो और जिसके खिलाफ माहौल बनाना हो, उसके लिए “निराशाजनक” आंकड़े दिखा दो। इससे सबसे ज़्यादा फायदा उस दल को होता है जो सत्ता में है — और सबसे ज़्यादा मुनाफा मीडिया चैनलों को। क्योंकि जैसे-जैसे चुनाव का ताप बढ़ता है, टीआरपी भी बढ़ती है।
यह सब एक सुनियोजित मीडिया-साइकल है — जिसमें खबर नहीं, भावना बेची जाती है।
मीडिया: जनमत का प्रहरी या भ्रम की फैक्ट्री?
टीवी चैनलों के लिए चुनाव किसी उत्सव से कम नहीं। हर चैनल अपने शो को “महासंग्राम”, “जनता की अदालत”, “मतों की मेला” जैसे शीर्षकों से सजाता है। लेकिन असल मकसद — दर्शक बनाए रखना और विज्ञापन खींचना। कोई चैनल यह नहीं बताता कि उनके पोल की पद्धति क्या थी। कौन से जिले में सर्वे हुए, कितने सैंपल लिए गए — यह सब धुंध में छिपा रहता है।
बस आंकड़े स्क्रीन पर आते हैं और एंकर साहब घोषणा करते हैं —“जनता ने तो सरकार चुन ली है, अब सिर्फ औपचारिकता बाकी है!” यही से शुरू होता है भ्रम। एक चैनल पर एनडीए को भारी बहुमत, दूसरे पर विपक्ष की सरकार —जनता सोचती रह जाती है कि आखिर सच्चाई क्या है। यही भ्रम असली व्यापार है।
सट्टा बाजार और शेयर मार्केट का खेल
चुनाव सिर्फ राजनीति नहीं, अब यह निवेश का मैदान भी बन चुका है। एक्ज़िट पोल के तुरंत बाद शेयर बाजार में उछाल या गिरावट आम बात है। इनक्रेड की रिपोर्ट के मुताबिक —“अगर सत्तारूढ़ एनडीए हारता है तो निफ्टी में 5 से 7 प्रतिशत की गिरावट संभव है।” यानी पोल के नतीजे आने से पहले ही मार्केट में ‘जश्न’ या ‘सदमा’ का माहौल बन जाता है।
यह सीधे-सीधे सट्टा बाजार और निवेशकों के मनोविज्ञान से जुड़ा है। विगत लोकसभा चुनाव में भी देखा गया था कि एक्ज़िट पोल आने के बाद बाजार में भारी हलचल मची थी —जिससे कई छोटे निवेशकों को नुकसान हुआ था। तो क्या यह सब पूर्वनियोजित ‘मनोवैज्ञानिक जाल’ है? क्या इन आंकड़ों के जरिए बाजार को प्रभावित किया जा रहा है? अगर हां, तो यह केवल आर्थिक खेल नहीं, लोकतंत्र की जड़ों को हिलाने वाली चाल है।
लोकतंत्र के आईने में एक्ज़िट पोल की धुंध
लोकतंत्र जनता के मत से चलता है, लेकिन जब मत से पहले “मतभावना” तय कर दी जाए, तो लोकतंत्र का अर्थ बदल जाता है।
एक्ज़िट पोल जनता की राय नहीं बताते — वे जनता की राय ‘बनाते’ हैं। इन पोलों से मतगणना से पहले ही माहौल तैयार कर दिया जाता है कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। यह “मीडिया निर्मित यथार्थ” है — जहां सच्चाई उतनी ही दिखती है, जितनी बिकती है। इसका असर जनता के मनोबल, पार्टी कार्यकर्ताओं की ऊर्जा, और बाजार के मूड — तीनों पर पड़ता है। और जब सब कुछ सिर्फ अनुमान पर टिका हो, तब लोकतंत्र ‘सर्वे की अदालत’ में खड़ा हो जाता है।
अब वक्त है सवाल पूछने का
जब एक्ज़िट पोल लगातार गलत साबित हो रहे हैं, तो सवाल यह है कि –
- इनकी जवाबदेही तय क्यों नहीं की जाती?
- सर्वे एजेंसियों की फंडिंग सार्वजनिक क्यों नहीं की जाती?
- कितने मतदाताओं पर आधारित हैं ये आंकड़े, यह बताना इतना मुश्किल क्यों है?
- और जब इनका असर बाजार और जनता दोनों पर पड़ता है, तो क्या यह नियामक निगरानी के दायरे में नहीं आना चाहिए?
लोकतंत्र में पारदर्शिता सिर्फ़ वोटिंग मशीनों में नहीं, बल्कि जानकारी देने वालों की नीयत में भी जरूरी है। अगर यह नीयत बाज़ार और सत्ता से संचालित होगी, तो एक दिन जनता का विश्वास भी “टीआरपी” की तरह घटने लगेगा।
लोकतंत्र का उत्सव या मुनाफे का मौसम?
हर चुनाव के बाद नतीजे चाहे जो हों, असली विजेता वही रहते हैं —मीडिया चैनल, सर्वे एजेंसियां, विज्ञापनदाता और सट्टा बाजार। जनता मतदान कर लौट जाती है, लेकिन इनकी जेबें भर जाती हैं। लोकतंत्र का उद्देश्य सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि विश्वास का उत्सव है। पर जब यह उत्सव एक व्यापार में बदल जाए, तो यह सोचना होगा — क्या हम सच में लोकतंत्र में जी रहे हैं, या सिर्फ़ लोकतंत्र के प्रदर्शन में?
